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________________ ८ ३१० श्रीदशवैकालिकसूत्रे त्वं निराकृतम् । 'जहाभाग' इत्यनेन च यत्र यस्येन्द्रियस्य विषयप्राप्तिस्तत्र तस्यैव दमनं वास्तविकमिन्द्रियदमनं, न तु दर्शनविषये कर्णपिधानमित्यादि बोध्यम् ॥१३॥ मूलम्-दवदवस्स न गच्छेज्जा, भासमाणो य गोयरे। ९ ११ हसंता नाभिगच्छेज्जा, कुलं उच्चावयं सया ॥१४॥ छाया-द्रुतद्रुतम्य न गच्छेत् , भाषमाणश्च गोचरे । हसन् नाभिगच्छेत् , कुलमुच्चावचं सदा ॥१४॥ सान्वयार्थ:--गोयरे-भिक्षाचरीमें (साधु) दवदवस्स-अति शीघ्रतासे दड़बड़२ दौड़ता हुआ य=तथा भासमाणो बोलता हुआ न गच्छेज्जा नहीं जावे, (तथा) उच्चावयं-उच्च-द्रव्यसे सप्तभूमिक महलोंवाले, भाबसे-धन-धान्यादिरहित समृद्ध, नोचद्रव्य से घास फूसकी झोपडी वाले, भावसे धन-धान्यादिरहित कुलं-कुलमें सया हमेशा जावे । (२ श्रु.१अ.२उ.) आचारागसूत्रमें बताये हुए सब कुलोंमें भिक्षाके लिए जावे अर्थात् जिस समय जिस देश में जो कुल दुगुंछित न हों उन सब कुलोंमें गोचरी जावे, साधुको चाहिए कि इयांसमिति शोधता हुआ रागद्वेषरहित होकर भिक्षाके लिए विचरे ॥ टीका-गोचरे=भिक्षायां भिक्षार्थमित्यर्थः, द्रुत द्रुतस्य-शीघ्र शीघ्रम् ‘दवदवे' त्यस्याव्ययत्वेऽप्यार्षत्वात्सविभक्तिकत्वम् , यद्वा क्रियाविशेषणत्वेन द्वितीयान्तत्वौचित्येऽप्यापत्वात्पष्ठयन्तत्वम् , न गच्छेतून यायात् । भाषमाणः संलपन च-तथा हसन्= हास्यं कुर्वन् नाभिगच्छेत् । उच्चावचम्-उदक् च अवाक् च इत्युच्चावचम्- ( 'मयूरव्यंसाधु की रसलोलुपताका निराकरण किया है । 'जहाभागं' पदसे यह प्रदर्शित किया है कि जहाँ जिस इन्द्रियका विषय उपस्थित हो वहाँ उसका दमन करना ही वास्तवमें इन्द्रियदमन कहलाता है, किन्तु चक्षुइन्द्रियका विषय उपस्थित होनेपर यदि कान मूंद लिए जायें तो इन्द्रिय दमन नहीं कहला सकता, इत्यादि ।॥ १३॥ 'दवदवस्स० ' इत्यादि । साधु गोचरीके लिए जल्दी २(दड़बड़२) न चले । बातचीत करता हुआ, तथा हंसता हुआ भो गमन न करे । उच्चनीच अर्थात् धनवान् और निर्धन आदि ताना त्या सूयित ये छ. अप्पहिढे शपथी मध्यस्थता घट री छ अणाउले यी साधुनी २ सातानु नि२।४२५ यु छ. जहाभाग श४थी मेम प्रोशित यु छ । જ્યાં જે ઇન્દ્રિયને વિષય ઉપસ્થિત હોય ત્યાં તેનું દમન કરવું એજ વસ્તુતઃ ઇંદ્રિયદમન કહેવાય છે, કિંતુ ચક્ષુ ઇન્દ્રિયને વિષય ઉપસ્થિત થતાં જે કાન સંકેચવામાં આવે તે તે छद्रियहमन वातुनथी. त्याह. (१३) खरवस त्याहि साधु गोयशन माटेतावणे Sणे न यावे. वात-यात કરતા કે હસતા-હસતે પણ ન ચાલે. ઉચ્ચ-નીચ અર્થાત્ ધનવાન-નિર્ધન આદિના કુળમાં १ धातूपात्तभावनां प्रति फलांशस्य कर्मीभूततया फलसामानाधिकरण्ये द्वितीया । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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