________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
श्रावक धर्म
गणना करते ? क्यों उच्च सदाचारी गृहस्थों को श्रमण के समान उपमा देते हुए 'समणभूए' कहते ? क्यों उत्तराध्ययन सूत्र के पंचम अध्ययन की वाणी में यह कहा जाता कि कुछ भिन्तुषों की अपेक्षा संयम की दृष्टि से गृहस्थ श्रेष्ठ है और गृहस्थ दशा में रहते हुए भी साधक सुव्रत हो जाता है। 'संति एगेहिं भिक्खूहि गारस्था संजमुत्तरा।' 'एवं सिक्खासमावन्ने गिहिवासे वि सुव्वए।' यह ठीक है कि गृहस्थ का धर्म-जीवन दुद्र है, साधु का जैसा महान् नहीं है । परन्तु यह तुद्रता साधु के महान् जीवन की अपेक्षा से है। दूसरे साधारण भोगासक्ति की दलदल में फंसे संसारी मनुष्यों की अपेक्षा तो एक धर्माचारी सद्गृहस्थ का जीवन महान् ही है, क्षुद्र नहीं।
प्रवचन सारोद्धार ग्रन्थ में श्रावक के सामान्य गुणों का निरूपण करते हुए कहा गया है कि "श्रावक प्रकृति से गंभीर एवं सौम्य होता है । दान, शील, सरल व्यवहार के द्वारा जनता का प्रेम प्राप्त करता है। पापों से डरने वाला, दयालु, गुणानुरागी, पक्षपात रहित = मध्यस्थ, बड़ों का आदर सत्कार करने वाला, कृतज्ञ = किए उपकार को मानने चाला, परोपकारी एवं हिताहित मार्ग का ज्ञाता दीर्घदर्शी होता है ।” ___ धर्म संग्रह में भी कहा है कि "श्रावक इन्द्रियों का गुलाम नहीं होता, उन्हें वश में रखता है। स्त्री-मोह में पड़कर वह अपना अनासक्त मार्ग नहीं भूलता । महारंभ और महापरिग्रह से दूर रहता है । भयंकर से भयंकर संकटों के आने पर भी सम्यक्त्व से भ्रष्ट नहीं होता । लोकरूढ़ि का सहारा लेकर वह भेड़ चाल नहीं अपनाता, अपितु सत्य के प्रकाश में हिताहित का निरीक्षण करता है। श्रेष्ठ एवं दोष-रहित धर्माचरण की साधना में किसी प्रकार की भी लजा एवं हिचकिचाहट नहीं करता । अपने पक्ष का मिथ्या आग्रह कभी नहीं करता । परिवार आदि का पालन पोषण करता हुआ भी अन्तहदय से अपने को अलग रखता है, पानी में कमल बनकर रहता है।"
For Private And Personal