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श्रावक-धर्म नहीं । परन्तु पहला सरल होते हुए भी ज़रा देर का है । और दूसरा कठिन होते हुए भी बड़ी शोघ्रता का है। बतायो, तुम कौन से मार्ग से मोक्ष जाना चाहते हो?
सन्त की बात को लम्बी करने का यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है । यहाँ प्रयोजन है एक मात्र पिछले अध्यायों की संगति लगाने का और जीवन की राह ढूँढने का । मानव जीवन का लक्ष्य है सच्चा सुख । और वह सच्चा सुख है त्याग में, धर्म के प्राचरण में । धर्माचरण और त्याग से हीन मनुष्य, मनुष्य नहीं, पशु है । मिट्टी को मनुष्य का आकार मिल जाने में ही कोई विशेषता नहीं है। यह प्राकार तो हमें अनन्त अनन्त बार मिला है, परन्तु उस से परिणाम क्या निकला? रावण मनुष्य था और राम भी, परन्तु दोनों में कितना अन्तर था ? पहला शरीर के आकार से मनुष्य था तो दूसरा प्रात्मा की दिव्य विभूति के द्वारा मनुष्य था । जब तक मनुष्य की आत्मा में मनुष्यता का प्रवेश न हो, तब तक न उस मानव व्यक्ति का कल्याण है और न उसके आसपास के मानव समाज का ही । मानव का विश्लेषण करता हुअा, देखिए, लोकोक्ति का यह सूत्र, क्या कह रहा है--"आदमी आदमी में अन्तर, कोई हीरा कोई कंकर।"
कौन हीरा है और कौन कंकर ? इस प्रश्न के उत्तर में पहले भी कह आए हैं और अब भी कह रहे हैं कि जो धर्म का श्राचरण करता है, गृहस्थ का अथवा साधु का किसी भी प्रकार का त्याग-मार्ग अपनाता है, वह मनुष्य प्रकाशमान हीरा है । और धर्माचरण से शून्य, भोग-विलास के अन्धकर में श्रात्म-स्वरूप से भटका हुआ मनुष्य, भले ही दुनियादारी की दृष्टि से कितना ही क्यों न बड़ा हो, परन्तु वस्तुतः मिट्टी का कंकर है। सच्चा और खरा मनुष्य वही है, जो अपने बन्धन खोलने का प्रयत्न करता है और अपने को मोक्ष का अधिकारी बनाता है।
जैन संस्कृति के अनुसार मोक्ष का एकमात्र मार्ग धर्म है, और
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