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श्रावक-धर्म
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एक बार एक पुराने अनुभवी संत धर्म-प्रवचन कर रहे थे । प्रवचन करते करते तरंग में श्रा गए और अपने श्रोताओं से प्रश्न पूछने लगे, "बताओ, दिल्ली से लाहौर जाने के कितने मार्ग हैं ?”
श्रोता विचार में पड़ गए। संत के प्रश्न करने की शैली इतनी प्रभावपूर्ण थी कि श्रोता उत्तर देने में हतप्रतिभ से हो गए। कहीं मेरा उत्तर गलत न हो जाय, इस प्रकार प्रतिष्ठाहानिरूप कुशंका उत्तर तो क्या, उत्तर के रूप में कुछ भी बोलने ही नहीं दे रही थी ।
उत्तर की थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद अन्ततोगत्वा सन्त ने ही कहा, "लो, मैं ही बताऊँ। दिल्ली से लाहौर जाने के दो मार्ग हैं ।" श्रोता अब भी उलझन में थे । अतः सन्त ने आगे कुछ विश्लेषण करते हुए कहा -- " एक मार्ग है स्थल का, जो श्राप मोटर से, रेल से या पैदल, किसी भी तरह तय करते हैं । और दूसरा मार्ग है आकाश से होकर जिसे आप वायुयान के द्वारा तय कर पाते हैं। पहला सरल मार्ग है, परन्तु देर का है । और दूसरा कठिन मार्ग है, खतरे से भरा है, परन्तु है शीघ्रता का । "
उपयुक्त रूपक को अपने धार्मिक विचार का वाहन बनाते हुए सन्त ने कहा - " कुछ समझे ? मोक्ष के भी इसी प्रकार दो मार्ग हैं | एक गृहस्थ धर्म तो दूसरा साधु धर्मं । दोनों ही मार्ग हैं, श्रमार्ग कोई
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