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कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
और असंसार-समापन्न कहा गया है। उत्तराध्ययन सूत्र और तत्त्वार्थ सूत्र में भी इन्हें क्रमशः संसारी और सिद्ध-मुक्त कहा गया है। जो आत्माएँ कर्म-संयुक्त होती हैं, तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव-परिवर्तन से युक्त होकर अनेक योनियों और गतियों में परिभ्रमण करती रहती हैं, वे सशरीरी आत्माएँ संसारी कहलाती हैं। ये संसारी आत्माएँ नित्य नये कर्म बाँध कर विभिन्न पर्यायों में उनके फल भोगती हैं। जैनागमों और जैनदर्शन में आत्मा के बदले जीव शब्द का ही विशेषतः प्रयोग किया गया है। ___ यों तो संसारी दशा और मुक्त दशा, इन दोनों दशाओं का कर्ता और भोक्ता स्वयं जीव (आत्मा) ही है। जीव ही अपने राग-द्वेष, कषाय आदि शुभाशुभरूप अशुद्ध परिणामों से स्वयं ही संसारी होता है और जब वह संवर, निर्जरा और सम्यग्दर्शन आदि सद्धर्म की साधना से स्व-पुरुषार्थ द्वारा संसार का अन्त कर देता है, तब वही मुक्त हो जाता है। सिद्ध-बुद्धमुक्त होने के पश्चात् वह पुनः संसार में नहीं आता। . ___चार गतियों और चौरासी लक्ष जीवयोनियों में जन्म-मरण एवं पुनःपुनः शरीर धारण करना, शरीर से सम्बन्धित विभिन्न जड़-चेतन पदार्थों का तथा सुख-दुःखादि जनक भावों का संयोग प्राप्त होना; इसी का नाम संसार
समस्त संसारी जीव (आत्माएँ) अनादिकाल से कर्म के साथ उसी प्रकार संयुक्त हैं, जिस प्रकार खान से निकाले गये सोने के साथ किट्ट-कालिमादि। इन्हीं कर्मों के संसर्ग के कारण संसार समापन्न आत्मा अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगने हेतु विभिन्न गतियों, योनियों और पर्यायों में भ्रमण करता रहता है, तथा नाना शरीर एवं अनेक शुभाशुभ तथा इष्ट-अनिष्ट संयोग प्राप्त करता रहता है। जीव की यह अवस्था अशुद्ध है-कर्ममलिन है। इस अशुद्ध अवस्था का यानी संसारदशा का तभी अन्त आता है, जब आत्मा कर्मों का समूल क्षय करके मुक्त-शुद्धदशा को प्राप्त हो जाती है, सिद्ध-बुद्ध हो जाती है।
१ (क) संसारिणो मुक्ताश्च ।
-तत्त्वार्थसूत्र अ. २/१० (ख) प्रज्ञापनासूत्र पद १ पृ. १६ (ग) भगवतीसूत्र १/१/२४ (घ) जीवाभिगम १/७ (ङ) संसारत्या य सिद्धा य दुविहा जीवा वियाहिया ।
-उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३६ गा. ४८ २ संसरणं संसारः, स एषामस्तीति संसारिणः।
-सर्वार्थसिद्धि २/१०
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