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जहाँ कर्म, वहाँ संसार ३५
जहाँ कर्म, वहाँ संसार
आत्मा की शुद्धदशा प्राप्त कराना ही जैनदर्शन का लक्ष्य
जैनदर्शन का समग्र चिन्तन-मनन, विश्लेषण एवं विवेचन आत्मा को केन्द्र में रखकर हुआ है। क्योंकि जैनदर्शन का मुख्य और अन्तिम लक्ष्य आत्मा से परमात्मा बनने की प्रेरणा देना, परमात्मभाव को प्राप्त करने की । ओर जीव की गति मति कराना तथा वर्तमान में राग-द्वेषादि या कषायादिगत मलिनंताओं से अशुद्ध एवं मलिन बने हुए आत्मा को इन मलिनताओं से मुक्त परमशुद्ध आत्मा बनने के लिए प्रेरित करना है। इसी कारण 'अप्पा सो परमप्पा' - जो आत्मा है, वही परमात्मा है - इस उत्क्रान्ति `सूत्र का उद्घोष जैनदर्शन ने किया। क्योंकि जैनदर्शन निश्चयदृष्टि से आत्मा को परमात्मा के समान शुद्ध, बुद्ध, अनन्तज्ञान- दर्शनमय, अनन्तशक्ति-सम्पन्न, अनन्तआत्मसुखमय, अमूर्त, शाश्वत तत्त्व मानता है। जैसा कि जैनदर्शन के आध्यात्मिक - उत्क्रान्तिकारी आचार्य कुन्दकुन्द कहते है - "निश्चय ही मैं (आत्मा) सदैव शुद्ध, शाश्वत और अमूर्त (अरूपी) तत्त्व हूँ, सदा ज्ञान दर्शनमय हूँ। मेरे से (आत्मा से) भिन्न जो पर-पदार्थ हैं, उनका यत्किंचित् परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है । निष्कर्ष यह है कि जितने भी पर-पदार्थ हैं, वे शुद्ध आत्मा से भिन्न हैं । "
आत्मा की दो अवस्थाएँ : क्यों, कैसी और कैसे ?
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परन्तु आत्मा की यह शुद्ध अवस्था केवल मोक्ष प्राप्त या जीवन्मुक्त मानवों में ही हो सकती है। इनके अतिरिक्त संसारस्य सभी जीवों की अवस्था अशुद्ध है। इसी दृष्टि से आत्मा (जीव ) की मुख्यतः दो अवस्थाएँ जैनदर्शन ने बताई हैं - एक संसारी अवस्था और दूसरी सिद्ध (मुक्त) अवस्था। इनमें से पहली अवस्था अशुद्ध है, जबकि दूसरी अवस्था शुद्ध है। इन्हीं दोनों को भगवती सूत्र और प्रज्ञापना सूत्र में क्रमशः संसार-समापन्न
१ अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसण- णाणमइओ सदाऽरूवी ।
ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि, अण्णं परमाणुमित्तं पि ॥
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- समयसार ३८
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