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कुमारसंभव
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कम्पेन मूर्ध्नः शतपत्रयोनिं वाचा हरिं वृत्रहणं स्मितेन 17/46 शिवजी ने ब्रह्मा जी की ओर सिर हिलाकर, विष्णुजी से कुशल मंगल पूछकर,
इन्द्र की ओर मुस्करा कर आदर किया। 18. सर्वतोमुख-ब्रह्मा।
अथ सर्वस्य धातारं ते सर्वे सर्वतोमुखम्। 2/3 ब्रह्मा जी को सामने देखते ही वे सब देवता चार मुंह वाले और सारे जगत् को
बनाने वाले ब्रह्मा जी को प्रणाम करके। 19. स्वयम्भुव :-पुं० [स्वयम्भवतीति । स्वयम् भू+डु स्वयम् भू+क्विप्] ब्रह्मा
तुरासाहे पुरोधाय धाम स्वायं भुवं ययुः। 2/1 वे सब इन्द्र को आगे करके ब्रह्माजी के पास पहुंचे। निर्मितेषु पितृषु स्वयंभुवा या तनुः सुतनुपपूर्वमुज्झिता। 8/52 देखो सुन्दरी, ब्रह्मा ने जब पितरों को रचा था, उस समय उन्होंने अपनी एक छोटी सी मूर्ति बना छोड़ी थी।
अजिन
1. अजिन-क्ली०[अजति धूल्यादिम् आवृणोति यत् । अज+ अजरेज च' इति
वीभावं बाधित्वा इनच्] चर्म, त्वचा, खाल। अथाजिनाषाढधरः प्रगल्भवाग्ज्वलन्निवं ब्रह्मयेन तेजसा। 5/30 इसी बीच एक दिन ब्रह्मचर्य के तेज से चमकता हुआ सा हिरण की छाल ओढ़े
और पलाश का डंड हाथ में लिए हुए। उपान्त भागेषु च रोचनाको गजाजिन्स्यैव दुकूलभावः। 7/32 हाथी का चर्म ही ऐसा रेशमी वस्त्र बन गया जिसके आँचलों पर गोरोचना से हँस
के जोड़े छने हुए थे। 2. चर्म-क्ली० [चर्म साधनतयास्त्यस्य। अच्] अजिनं, त्वक्, असृग्धरा, फलक;
क्ली० [चर+ सर्व धातुभ्यो मनिन' इति मनिन्] त्वचा, खाल। स देवदारु दुम वेदिकायां शार्दूल चर्म व्यवधानवत्याम्। 3/44 देवदारु के पेड़ की जड़ में पत्थर की पाटियों से बनी हुई चौकी पर बाघम्बर
बिछा हुआ है। 3. त्वचा-स्त्री [त्वचति संवृणोति मेदशोणितादिकमिति। त्वच् संवरणे+क्विप्।
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