Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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Jain
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५० मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
तो उनका मन सन्तोष अनुभव कर कहा था. मेरी जीवन की एक साध तो पूरी हुई, धीरे-धीरे समाज में अन्य सुधार भी होंगे. समाज को संगठन भूमि मिली है. खुदेगी तो समय आने पर सुधार और चारित्रिक निर्मलता के सुफल भी भावी समाज प्राप्त करेगा.
आपका जन्म सं० १९४७ आषाढ़ शुक्ला तृतीया पिरोजपुरा ( कुचेरा) में माता कुंवरादे की रत्नकुक्षि से हुआ था. पिता का नाम श्रीहरचन्दराय जाट था.
१६५९ वैसाख कृष्णा सप्तमी को सेठों की रिया में श्रीनथमलजी का शिष्यत्व ग्रहण किया था. आपके बाबागुरु का पवित्र नाम श्रीसूरजमलजी म० था. दोनों मुनि अपने समय के आचारनिष्ठ व कर्मठ स्वाध्यायी सन्त माने जाते थे. वर्तमान में श्री चांदमलजी म० इसीलिए स्वाध्यायी चांदमलजी म० के नाम से विख्यात हैं कि आपके अग्रज स्वाध्यायप्रेमी थे. श्रीचांदमलजी म० और श्रीजीतमलजी म०, श्रीचौथमलजी म० के गुरुभाइयों में हैं. इस युग में शास्त्रलिपि - कारों में श्रीचांदमलजी का नाम सर्वोपरि है.
श्रीचौथमलजी म० का स्वर्गवास जोधपुर में समाधीमरण पूर्वक हुआ था तेरह दिन संथारा भावों की बड़ी निर्मलता के साथ चला था. सम्मेलन के बाद सबसे पहले स्वर्गवास आप ही का हुआ था. ऐसा लगता था कि वे सम्मेलन होने की बाट हो जो रहे थे. उनके मन की मुराद संगठन की थी. वह पूरी होते ही वे अपने संयमीय जीवन के काम्य को पा गये. श्रमण संघ में परिगणित अन्य सन्त भी उनके संल्लेखना के भीष्म व्रत की पूर्णाहुति के समय पधारे थे. सन्तों को देखकर उन्हें अपार हर्ष हुआ. उन्होंने कहा था कि मेरी युगों की अभिकांक्षा आज साकार है. मैं आज परम प्रसन्न हूँ.
स्वामी श्रीरावतमलजी म०
जिनके जीवन की गहराई से सन्तत्व जन्म लेता है वे महान् सन्त कभी युवा और वृद्धत्वावस्था की विभाजक रेखा को स्वीकार नहीं करते हैं. स्वामी श्रीरावतमलजी म० भी एक ऐसे ही सन्त हैं. आज वय की दृष्टि से जयमलजी म० की सम्प्रदाय में तो वे सबसे पुराने अनुभवी और ज्ञानी तपस्वी सन्त हैं ही परन्तु अनुमान है कि अखिल भारतीय श्रमण संघ में भी श्राप सब से वयोवृद्ध सन्त हैं.
आपका जन्म मारवाड़ के के रडोद (आसोप के पास ) नामक ग्राम में सं० १९४५ में हुआ था. माता-पिता होने का गौरव क्रमशः श्री पारादे व श्रीमहरदासजी को प्राप्त हुआ था. सं० १६६० वैशाख कृष्णा पंचमी के शुभ दिन रियां सेठोंकी में गुरुवर श्रीमगनमलजी म० के द्वारा दीक्षा ग्रहण की थी. आपके शिष्यों में श्री भैरवमुनि जी हैं.
विशेष
तपःसाधना आपके जीवन का सर्वाधिक प्रिय लक्ष्य है. आगमस्वाध्याय और तप बस ये ही दो जीवन में करणीय मान कर किए जा रहे हैं. वर्षावास के अतिरिक्त समय में भी आप जहां पर विराजते हैं वहीं पर स्वयं भी तपस्या करते हैं और अपने सम्पर्कस्थों को भी तप करने की पवित्र प्रेरणा प्रदान करते रहते हैं. आपका मानना और कहना भी केवल मानने और कहने तक ही सीमित नहीं है. आप तप स्वयं करते हैं और दूसरों को भी तप का महत्त्व बताकर तप द्वारा महान् आत्मबल और आत्मशोधन की ओर अभिमुख करते रहते हैं.
आपकी मान्यता है कि प्रवचन करना साधु का परम धर्म है. यही कारण है कि आपके द्वारा जनता को प्रवचन का लाभ मिलता रहता है. प्रवचनशैली मारवाड़ी है, परन्तु बड़ी रसमय. दोहे सवैये कवित्त आदि काव्य कला के माध्यम से जनता को अपनी बात सटीक जमा देते हैं. बात-बात पर दोहे कवित्त का सरस संगीत सुनाई देता है. थोड़े समय के लिये भी जो उनके पास बैठता है वह उनसे किसी शिक्षात्मक दोहे द्वारा दिव्य प्रेरणा ग्रहण करता है.
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