Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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४८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
श्रीशोभाचन्द्रजी म०
जन्म चिचंडनी (जोधपुर) सं० १९१७. पिता श्रीजीतमलजी माता धुराबाई की रत्नकुक्षि से जन्म ग्रहण किया. हृदय की सुकोमल भूमि में बचपन से वीतराग वाणी का पानी साधु-सन्तों द्वारा पड़ता रहा. फलस्वरूप धर्म का बीज अंकुरित हुआ. जनक- जननी से भागवती दीक्षा धारण की अनुमति ग्रहण कर सं० १९२६ की भाद्रपद शुक्ला पूर्णिमा के दिन पाली (राजस्थान) क्षेत्र में आचार्य हीराचन्द्रजी म० का शिष्यत्व स्वीकार किया.
ज्ञानाराधना की. यौवन आया, चुप-चाप चला गया. ज्ञान की प्रखंड लौ से आपने अपने जीवन-पथ में प्रकाश पाया. चारित्र की कठोर साधना, स्वाध्याय, त्याग और तप की अखंड आराधना के फलस्वरूप आपका स्वभाव अत्यन्त नम्र बना. जिज्ञासा वेगवती हुई. स्व और पर सन्त परिवार की भेदक दीवारों को लांघ कर सब से स्नेह व सौजन्यपूर्ण व्यवहार करना -- उस समय के सन्तों में आपमें विशेष रूप से पाया जाता था.
आप के स्वभाव के आकर्षण ने तीन भव्यात्माओं को जिनधर्म की दीक्षा धारण की बलवती प्रेरणा प्रदान की. मुनि श्रीचौथमलजी म०, नरसिंहजी म० व श्रीमूल मुनिजी म..
वैशिष्ट्य
जिनके जीवन में हिमालय-सा उन्नत लक्ष्य व उद्देश्य होता है वह व्यक्ति परिवार की सीमाओं में बँधकर कभी नहीं रहता है. सन्त परिवार की दृष्टि से आपका मुनि हजारीमलजी म० के दादा गुरु श्रीफकीरचन्द्रजी म० एवं गुरु श्रीजोरावरमलजी म० से निकट सम्बन्ध नहीं था. तथापि आचार्य श्रीजयमलजी म० के पश्चाद्वर्ती बने जयगच्छ के नाम की मुद्रा सम्प्रदाय के तीनों मुनियों के पीछे लगी होने के कारण उनका सम्बन्ध एक परिवार के सन्तों के समान ही था. युग और समय के अनदेखे प्रभाव बड़े विचित्र होते हैं. काल का चक्र बीतता जा रहा है. आज कालचक्र का वह पहलू हमारे सामने है कि जिसमें शोभाचन्द्रजी म० के सन्तपरिवार में से कोई भी दृष्टिपथ नहीं हो रहा है. परन्तु उनका शिष्य एक भी न होने पर भी यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि उनका सन्तपरिवार है. स्वामी श्रीजोरावरमलजी म० उनके स्नेही समकालीन थे. अत: उनका सन्त या शिष्य न होने पर भी जोरावरमलजी म० के शिष्यों का सन्तपरिवार विद्यमान है अतः वह उनका ही शिष्य परिवार है. जोरावरमलजी म० का जब तक सन्तपरिवार है यह गौरवपूर्वक कहा जा सकता है कि श्रीजोरावरमलजी का सन्तपरिवार उनका भी परिवार है.
स्वामी श्रीहरखचन्द्र जी म०
सन्तजीवन भारतीय धर्मशास्त्रों में अत्यन्त पवित्र माना गया है. वह इसलिये कि दुनिया के छल-प्रपंच व मायाजाल से उसने अपने आपको परिमुक्त कर लिया है. मानव अपने स्वार्थ व लाभवश इस प्रकार के बन्धनों में जकड़ा पकड़ा हुआ पाया जाता है कि प्रयत्न करने पर भी वह इस बंधन से मुक्त होने में अपने आपको दुर्बल अनुभव करता है. अतः सामान्यतः मनुष्य में दुर्बलता सहज है. बस यही भाव सन्त जीवन की ओर मनुष्य को आकर्षित करता है.
मुनिश्री हरखचन्द्रजी म० के प्रति जन-जन की सहज श्रद्धा थी. इसका कारण यह था कि वे सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर अनन्त आकाश और विशाल धरती पर धर्म का छत्र धारण कर चुके थे. वाणी के वे जादूगर बन चुके थे. भगवान् महावीर अपनी धर्मदेशनाओं में स्थान-स्थान पर साधकों को सत्य का छोर थमाते हुये कह गये साधको, थोड़ा बोलो, स्वल्प बोलो. अधिक बोलने पर अधिक प्रवृत्तिमय जीवन होगा. प्रवृति, निवृत्तिमूलक वीतराग धर्म में बाधा उपस्थित करती है. महावीर की यह धर्मदेशना उनके जीवन में साकार हो गई थी. अतः उनके श्रीमुख से कहा गया प्रत्येक सहज वचन सत्य प्रमाणित होता था. यही कारण है कि उनका स्वर्गवास हुये आज अर्ध शताब्दी से भी अधिक समय व्यतीत हो गया है, फिर भी उनके चारित्रिक जीवन पर आज भी श्रद्धालुओं की विपुल मात्रा में अखंड श्रद्धा पाई जाती है.
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