Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ १ स. १४ अकालमेघदोहदनिरूपणम्
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दाभिः = वात्सल्यपूर्णाभिः, 'वग्गूहि' वाग्भिः = वाणीभिः 'आलवह' आलपति, एक वारं न पृच्छति, 'संलवइ' संलपति = पुनः पुनर्न पृच्छति, नो अर्धासनेनोपनिमन्त्रयति, नो मस्तके आजिप्रति = नो मां मस्तके = चुम्बति च किमपि अपः तमनः संकल्पो ध्यायति=आर्तव्यानं करोति तद् भवितव्यं खलु अत्र कारणेन, '' तत् = तस्मात् श्रेयः खलु श्रेणिकं राजानम् एतमर्थं प्रष्टुम् । एवं संप्रेक्षते= विचारयति, संप्रेक्ष्य = विचार्य यत्रैव श्रेणिको राजा, तत्रैवोपागच्छति, उपागस्य करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त मस्तके अंजलि कृत्वा जयेन विजयेन वर्धयति,
तथा मन भाविनी उदार वाणी से मुझ से आलाप करते हैं न संलाप करते हैं और न एसा हीं कहते हैं कि आओ आधे आसन पर बैठ जाओ । (णो मत्थयंसि अधाइ य) ओर न मेरा मस्तक ही सूंघते हैं। किन्तु (किंपि ओमणकपे झिया यह) मनोरथकी पूर्ति से निराश होकर वे किम भाव में किन विचारों में मग्न हो रहे हैं - यो चिन्तातुर बने हुए बैठे हैं- (तं भवि यच्णं एत्थ कारणेणं) अतः इस में कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिये । अतः (सेयं खलु मे सेणि यं राया एयमहं पुच्छित्तए) तो मुझे अब यही श्रेयस्कर हैं कि मैं श्रेणिक राजा से इस विषय को पूछू । ( एवं संपेtइ) अनयकुमार ने ऐसा विचार किया। (संपेहित्ता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छई) विचार करके फिर वे श्रेणिक राजा के बिलकुल नजदीक गये ( उवागच्छित्ता करयल परिगहियं सिरसावतं मत्थर अंजलि कट्टु जएणं विज एणं वद्भावेइ) जाकर उन्होंने सर्व प्रथम श्रेणिक राजा को करबद्ध होकर नमस्कार किया और जय विजय शब्द से उनका अभिनंदन किया ।
तो थोमस होवु लेये.
તેઓ ઇષ્ટ, કાંત, પ્રિય તેમજ મનગમતી સરસ વાણી દ્વારા મારી સાથે વાતચીત કરતા નથી. સંતાપ કરતા નથી અને આવ મારી સાથે જ અડધા આસન ઉપર બેસ એમ પણ उता नथी. णो मत्थयंमि अधार य) भने भाई मस्ता पशु संधता नथी परंतु (किंपि ओहमण संजप्पे झियाय) दु:मी भने तेथे चिंतामन थाने या वियाभांडूमी रह्या छे. (तं भविएवं णं) भानु ॐ ( तं सेयं खलु मे सेणियं राया एयमहं पुच्छिनए) तो આ વિષે પૂછવામાંજ છે. पेहेइ) मलयभारे (संपे हित्ता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उत्रागच्छ) वियार रीने तेथे श्रेणि राजनी हम पासे गया. ( उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियसिरसावत्तं मत्थए अंजलि कहुजएणं विजएवं वद्धावेइ) पासे ने सौ प्रथम तेथे. मे કરદ્ધ થઈને ણિક રાજાને નમસ્કાર કર્યો, અને જયવિજય શબ્દથી તેમને વધાવ્યા.
वे भाइ श्रेय श्रेणिशन्नने या रीते विचार यो.
*TERDA
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