Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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ज्ञाताधर्मकथाम
"तितक्ष से दैन्यभावरहितउपशमदशां न भजसि 'अहियासेसि' अध्यास्से शुभाध्यवसायेन निश्रलकायतया नावतिष्ठसे, हे वत्स ! स्वकल्याणार्थ परीषहोपसर्गादिक सर्वथा सहनीयमित्याशयः । ततः खलु तस्य मेघस्य अनगारस्य श्रमस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य शुभैः परिणामैः प्रशस्तैरध्यवसायैर्लेश्याभिर्विशुध्यमानाभिस्तदावरणीयानां=मतिज्ञानभेदरूपाणां जातिस्मरणावरणीयानां कर्मणां 'खओवसमेणं' क्षयोपशमेन उदितानां क्षयः, अनुदितानां विष्कम्भनोदयत्वम् उपशमः तेन 'ईहावर सगण' ईहापोह मार्गणगवेषणम् = ईहा=सदर्थाभिमुखो वितर्कः, अपोह :=
सेसि ) तन्तनादि शब्द रहित होकर तुम क्षमा पूर्वक शान्त भाव धारण नहीं कर सकते हो, दैन्य भाव रहित उपशम अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकते हो ? शुभ अध्यवसाय से निश्चल शरीर होकर नहीं ठहर सकते हो ? हे वत्स ! अपने कल्याण के लिये भ्रमण निर्ग्रन्थ साधु को आये हुए परीवह और उपसर्ग सब सहन करना चाहिये । (तपणं तस्स मेहस्स अणगारस्स समणस्स भगवओ महावीररस अंतिए एयम सोच्चा णि सम्म ) इस प्रकार उस मेघकुमार को श्रमण भगवान् महावीर के मुखा रविन्द से इस अर्थ को सुनकर और उसे हृदय में अवधारित कर ( सुभेहि परिणामेहिं सत्थेहिं अज्झवसाणेहि लेस्साहि विमुज्झमाणीहिं तयावर णिज्जकम्माणं खओवसमेणं) शुभ परिणामों से प्रशस्त अध्यवसायों से विशुध्यमान लेश्याओं से मतिज्ञानवरण कर्म के भेदरूप जातिस्मरणावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से ( ईहा वहमग्गणगवेसणं ) ईदा, पोह, છોડીને ક્ષમાશીલ થઇને શાંત ભાવ ધારણ કરી શકતા નથી ? અને દૈન્ય રહિત થઇને ઉપશમ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી ? શુભ અધ્યવસાયથી સ્થિરતા મેળવીને સ્થિર બની શકતા નથી ? હે વત્સ પેાતાના કલ્યાણ માટે શ્રમણ નિગ્રંથ સાધુને लवनभां आवता परीषडु भने उपसर्ग मघाने सहन उरवा लेहये. (तए णं तस्स मेहस्स अणगारस्स समणस्स भगवओ महावीररस अंतिए एयमहं सोच्चा णिसम्म ) प्रमाणे भेघकुमारे श्रमण भगवान महावीरना भुभगधी मा वयना सांलज्यां मने तेभने हृदयमां सारी पेठे धार उरीने ( सुभेहिं परिणापित्थे अज्झमाणेहिं लेस्साहि विमुज्झमाणीहिं तयावर णिज्जकम्माण खओत्रसमेणं ) शुभ परिणाभोथी प्रशस्त अध्यवसायोथी विशुद्धमान बेश्या मोथी, भतिज्ञानावरणु उर्भना लेह ३५ नति स्मरणावरणीय भेना क्षयोपशमथी, ( ईहावूह मरगणगवेसणं ) डिसपोड़ भार्गीशु, गवेषाशु ( करेमाणस्स ) ( सन्नि
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