Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्र धर्थम् विदेशगमनं-पापाराद्यर्थवा 'समुप्पज' ममुपद्येत भवेत् 'तन्न' तत्खलु 'अम्हे हिं' आवाभ्यां 'एगयओ' एकनः एकत्र 'समेच्चा' समेत्य मिलित्वा कार्य, णित्थरियन्वं' निस्तरितव्यम् पारयितव्यं कर्तव्यमित्यर्थः, 'तिकटु' इति कृत्वा अन्योन्यं परस्परं, एनपं-एतादृशम् 'संगारं' मलेनम् 'पडिसुणेति' प्रतिशणुतः स्वीकुरुतः प्रतिश्रुत्य-स्वीकृत्य 'सकम्मसंपउत्ता' स्वकर्मसम्पयुक्तौ-स्वकार्य परायणौ जातो चाप्यभूताम्, स्त्र स्वकार्य करणोत्सुकौ स्वगृहं जग्गतुरित्यर्थः ।। मूत्र ४ ॥
मूलम्-तत्थणं चंपाए नयरीए देवदत्ता नामं गणिया परिवसइ अडा जाव अपरिभया चउसट्रिकलापंडिया चउसट्रि गणियागुणोक्वेया अउणतीसंविसेसे रनमाणी एकवीस रइ गुणप्पहाणा बत्तीसपुरिसोवयारकुसला णवंगसुत्तपडिबोहिया अट्टारसदेसीभासा विसारया सिंगारागारचारुवेसा संगयगयहसिय० उसियझया सहस्सलंभा विदिन्नछत्तचामर वालवियणियाकन्नी रहप्पयाया यावि होत्था बहूणं गणिया सहस्साणं आहेवचं जाव विहरइ.सू. ५॥ रहे, प्रवज्या ग्रहण करें या व्यापार आदि के लिये परदेशमें जावे (तन्नं अम्हेहिं एगयओ समेच्चा णित्थरियव्यं त्ति कटु अन्नमन्नमेयारूव संगारं पडिमुणे ति) फिर भी अपने दोनों जो कुछ काम करे वह मिलकर ही करें। इस प्रकार उन दोनों ने परस्परमें संकेत स्वीकृत कर लिया। (पडि सुणित्ता सकम्मउत्ता जाया यावि होत्था) इस तरह परस्परमें सकेत बद्ध होकर वे दोनों अपने २ कार्य करने में उत्कंठित बनकर वहांसे अपने २ घर को चल दिये। मू. ४ ॥
हुममा २डीशु, प्रporn अडए ४शशु वेपार भाटे ५२देश (तन्नं अम्हेहिं एगयाओ समेचा णित्थरियत्ति कटु अन्नमन्नमेयारूवं संगार पडि सणे ति) ५४ अभे भने गमेरे आभमा पडीत भणीन शु. प्रमाणे तेसो मनसे ५२२५२ सत (A२०) २४ारी बीघा. (पडिमुणित्ता सम्म संपउत्ता जाया याविहोत्थो) 0 रीते ५२२५२ संत (शत) मद्ध (प्रतिज्ञाम) थने तेथे। બંને પોતપોતાના કામમાં ઉત્સુક બનીને ત્યાંથી બંને પોતપોતાને ઘેર ગયા, સૂત્ર ૪
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