Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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ज्ञाताधर्म' कथासूत्रे
टीका- 'एग से मऊरपीए' इत्यादि --तस्तदनन्तर खलु स मयूरशेतकः 'उम्मुकचालभावे' उन्मुक्तबालभावः त्यक्त बालावस्थः 'विनायपरिणयमेते' विज्ञतपरिणत मात्रः, विज्ञातं विज्ञानं तत् परिणतमात्र परिपकावस्थ यस्य स तथा परिपक्के विज्ञान इत्यर्थः, दर्शनमा णैत्र तेन नृत्यकलादि विज्ञातमिति भावः । 'जोन्वणगमणुपत्ते' यौवनक्रमनुप्राप्तः - तरुणत्वं संप्राप्तः 'लक्खवंजणगुणोत्र वे ए' लक्षण व्यञ्जन गुणोपेतः -- तत्र लक्षणानि = मगूरलक्षणानि व्यञ्जनानि=मयूरसम्बन्धि शिखाचन्द्रकादीनि मयूरगुणाश्च तैरुपपेतः । ' मागोमाणपमाणपडि पुण्णपकखपे हुए कला वे' मानोन्मानममाणप्रतिपूर्ण पक्षविहूंण कलापः मानेन विष्कम्भतः, विस्तारतः । उन्मानेन बाहुल्यतः, उत्सेधेन=उच्चतयां प्रमाणेन चायामतः प्रतिपूर्ण पक्षका वस्य स तथा पेगकलापः पिच्छसमूहः । 'विचितापिच्छे' विचित्रपिच्छः विचित्राणी=विविधरूपाणि पिच्छानि यस्य स तथा 'सतचंद ए' शतचन्द्रकः शतसंख्यका चन्द्रका यस्य स तथा 'नीलकंठए'नीलकण्ठकः नीलवर्णो कण्ठो यस्य स 'नचrसीलए' नर्तनशीलकः - नृत्यकला परायणः, 'एगाए चप्पुडियाए'
'तए से मऊरपोयए उम्मुक्कवालभावे' इत्यादि ।
टोकार्थ - ( नए) इसके बाद ( से मऊरपोयए) वह मयूरपोतक (उम्मुक्क बालभावे) बालभाव का परित्याग कर - - विन्नाय परिणय मेने जोन्त्रणगमणुपत्ते) परिपक्वज्ञान वाला बन गया इससे वह देखने मात्र से ही नृत्यकला जानने लग गया। जब वह यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ तो (लक्खवंजणगुगोवए) लक्षणों से तथा मयूर संबंन्धी शिखा चन्द्रक आदि व्यंजनों से एवं मयरसंबन्धी गुणों से युक्त हो गया । (माणुम्माणप्पमाणप डिपुन्नवत्रखपे हूण कलावे विचित्तपिच्छे सतचंदए नीलकंठए नच्च सीलए) मानसे ( विस्तारकी अपेक्षा) उन्मान से (ऊंचाई की अपेक्षा) और प्रमाण से ( श्रायामकी अपेक्षा) इसका पिच्छ समूह प्रतिपूर्ण था। इसके पांख विविध रूपवाले थे, पांखों
'तरण से मऊरपोयर उम्मुक्कवालभावे' इत्यादि ॥
टोकार्थ - - (तरण ) त्यार पछी ( से मऊरपोयए) भोग्नु भ्यु (उम्मुबालभावे) भोटु थ्यु (विन्नायपरिणयमेत्त जोडवणगमणुपत्ते) त्यारे स ज्ञानी था गयुं न्यारे ते नुवान थयुं त्यारे ( लक्खणवंजणगुणेव वेए ) भारना લક્ષણા–કલગી, ચન્દ્રકા પીછાં અને મારના બધા ગુણૈાથી યુકત થઈ ગયું. (माणुम्माणष्पमाणप डिपुन्नपक्खणेहूणकलावे विचित्तपिच्छे सतचंद rtoise नचणसीए) भानथी ( विस्तारनी दृष्टिये) उन्मानथी (अथाधनी दृष्टिखे) અને પ્રમાણથી (આયામની દૃષ્ટિએ) તેના પીછાં પ્રતિપૂર્ણ હતાં. તેનાં પીછામાં સેકડો ચંદ્રકા હતા અને તેના કંઠે ભૂરા રંગનો હતેા. નાચવા માટે તે હમેશાં તૈયાર જ
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