Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ. ४ गुप्ते द्रियत्वे कच्छपश्रृगालदुष्टान्तः
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'आहारिता' आहारयित्वा तं कूर्मकं सर्वतः समंताद् उद्वर्तयतः यावत् नो चैव खलु शक्तः यावत् कर्तु तदा द्वितीयमपि अक्रामतः, तं कर्मक मित्याद्यक्रामन इत्यन्तपदसमुदायस्यायं भात्रार्थः चरणैकमक्षणानन्तरं पुनस्तौ शृगाल, अवशिष्टत्रितयचरणकं कूर्मकं सर्वतः समन्तादुद्वर्तनपरिवर्तन मनागपसारणादिभिर्व्यापारैः क्षोभयितुं तथा-नखदन्ताघातैश्छिन्नं खण्डितं च कर्तुं प्रयतमानौ न शक्नुवस्वस्य कूर्मकस्य शरीरे कामपि वाघां कर्तु तदा श्रान्तौ निर्वेदं प्राप्तौ तौ शृगालौ द्वितीयवरमपि पराटस्य दूरमपसरत इति ।
' एवं चत्तारित्रि पाया जात्र २ गीवं गीणेड़' एवं चतुरोऽपि पादान् यावत् शनैः शनै ग्रां नयति । एवम= उक्तक्रमेण स कूर्मकस्तौ श्रगालौ दूर उव्वति) खाकरके फिर उन्होंने उस कच्छप को सव प्रकार से और सब तरफ से उल्टा पल्टा | (जाव नो चेत्र णं संचाएंति करेत्तए) परन्तु वे उसके शरीर में किसी भी प्रकार की पीडा आदि को करने में समर्थ नहीं हो सके। (ताहे दोच्चपि अवक्कमंति) तब दुबारा भी उन्होंने उस पर आक्रमण किया । इसका भाव यह है कि जब उन्होंने उसका एक चरण भक्षण कर लिया, तब उसके बाद अवशिष्ट तीन चरण वाले कच्छप को सर्व प्रकार से और सब तरफ से उद्वर्तन, परिवर्तन, मनागपसारण आदि व्यापारों द्वारा क्षुभित करने का तथा नखदन्तादि आघातों द्वारा छिन्न और खंडित करने का प्रयत्न किया-तो भी वे उस कच्छप के शरीर में किसी भी प्रकार की बाधा करने के लिये समर्थ नहीं हो सके । तच श्रान्त और निर्वेद को प्राप्त होकर के दोनों के दोनों श्रृंगाल दुबारा भी लौटकर बहुत दूर चले गये। ( एवं चत्तारि वि पाया जात्र सणियं २ गीवं णीणे३) उस कच्छपने इसी तरह समता उन्नति) आधा पछी श्रृगालोमे ते अयमाने आम तेम उपर नीचे परिवर्तित ४२वा लाया. (जाव नो चेत्र णं संचाएंति करेत्तए) पशु ते तेना शरीरने सहेन यागु थीडा यहोयाडी राम्या नहि. ( ताहे दोचंपि अवक्कमंनि) ત્યારે બીજી વાર પણ તેઓએ કાચબા ઉપર હુમલા કર્યાં. કહેવાના હેતુ એ છે કે જ્યારે તેઓ કાચબાના એક પણ ખાધા ત્યારે ત્રણ પગવાળા કાચબાને સર્વાં પ્રકારે ચામેરથી ઉદ્બન, પરિવર્તન મનાગપસારણ વગેરે ક્રિયાઓ વડે શુદ્ધિત કરવાના તેમજ નખ દાંત વગેરેના પ્રહારો વડે છિન્ન અને ખ'ડિત કરવાના પ્રયત્ન કર્યો છતાંએ તે કાચમાના શરીરને કોઇપણ જાતની પીડા પહોંચાડવામાં સમ થઈ શક્યા નહિ. ત્યાર પછી શ્રાંત કલાંત થયેલા શૃગાલા શ્રીજી વાર પણ પાછા इरीने ६२ ४ता रह्या. (एव चत्तारि वि पाया जाव सणियं २ गीव णीणेइ)
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