Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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झाताधर्मकथाम खल त्वं देवानुपिय! इदं विपुल प्रचुरम् अशनं पानं खाद्य स्वाद्यगृहात्वा चार कशालायां धन्यस्य सार्थवाहस्य 'उवणेहि उपनय-समीपे प्रापय। ततः खलु स पान्थको दासचेटको भद्रया सार्थवाह्या एवमुक्तः सन् हृष्टतुष्टस्तद भोजनपिटकं, तच्च सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णदकवारकं गृह्णति, गृहीत्वा स्वकाद् गृहात प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य राजगृहे नगरे मध्यमध्येन यौव चारकशाला, यौव धन्यः सार्थवाहस्तमैवोपागच्छति, उपागत्य (गच्छ ण तुण देवाणुप्पिया । विउलं असणं ४ गहाय चारगसालाए धन्नस्स मत्थवाहस्स उवणहि) हे देवानुपिय ! तुम इस विपुल अशन. पान, खाध
ओर म्वाध--आहार का लेकर कारावास में धन्य सार्थवाह क पास पहुँचाआओ। (नएणं से पंथए दासचेडए भदाए सस्थाहीए एवं वुत्ते समाणे हटतुट्टे तं भोयणपिडयं तं च सुरभिवरवारिपडिपुन्नं दगवारयं गेहइ) भद्रा सार्थवाही के इस कथन को सुनकर वह पथिक दास चेटक बहुत अधिक हर्षित हुआ और संतुष्ट हुआ। तथा उस भोजन के भरे हुए डिब्बेको एवं सुगन्धित उगम जल से परिपूर्ण उस झारी को उसने ले लिया। (गोहना सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ) लेकर वह अपने घर से निकला--(पडिनिकम्वमित्त। रायगिहे नयरे मन मज्झेण जेणेव चारगसाला जेणेव धन्ने सस्थवाहे तेणेव उवागच्छ!) निकल कर वह राजगृह नगर के ठीक बाचो बीच के मार्ग से हाता हुआ जहां वह कारागस एवं धन्य सार्थवाह था वहां गया--(उ गगच्छित्ता भोयण तेने या प्रमाणे तेयु-(गच्छ ण तुम देवाणुप्पिया ! विउलं असणं ४ गहाय चारगसालाए धन्नस्स मत्यवाहस्स उवाणेहि) है वानप्रिय ! तभै २१ પુષ્કળ પ્રમાણમાં બનાવેલા અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય આહારને લઈને જેલમાં धन्यसाईपनी पासे पडयो शे (त एण से पंथए दासचेडए भदार सत्य वाहार एवं वुत्ते ममाणे हद्वतु तं भोयपिडयं तं च सुरभिवरवारिपडिपुन दगवारयं गेहइ) बद्री सार्थवाहीनी माज्ञा समाजाने पांथास २५ બહુ જ પ્રસન્ન થયે––અને સંતુષ્ટ થયું. ત્યાર પછી તેણે ભોજનથી પરિપૂર્ણ ડબાને तेम सुवासित थी पूर्ण मरेकी आरीने ते वा बीपी. (गेह्निता सयाआ गिहाआ पडिनिक्वमइ) छन ते पाताने धेरथी नाल्यो. (पडिनिक्वमित्ता रायागहे नयरे मज्झ मज्झगं जेणेव चारगसाला जेणेव धन्ने सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ) नीलीन रा नानी ४ १२ये। भागथी ५सा२ थान ते न्यारे भने धन्यसावा .तो त्या ५iयो. (उदाच्छित्ता भायण
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