Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनगारधामृतधणीटीका अ. २ स. २ भद्राभोर्यायावर्णनम् पौणमासी तस्याःरजनीकरश्चन्द्रम्तद्वत प्रतिपर्ण-सौम्यं आहादजनकं वदनंमुखं यस्याः सा तथा 'सिंगारागारचारुवेसा,' शृङ्गागगारचारुवेषा, शृङ्गाराज्य प्रथमरसस्य अगारमिव-गृहमिव चारुवेषो यस्याः सा, रद्धा शङ्गागे भूषणाटोपस्तस्प्रधान आकारो यस्याः सा तथा मनोहरनेपथ्या, अत्र पद द्वयस्य कर्मधारयः । 'जाव' यावत् 'पडिरूवा' प्रतिरूपा 'वंझा' बन्ध्याअपत्यकलापेक्षया निष्फला, एकबार संतानसं नाता नं नरमपत्यमरणेनापि 'फलनो बन्ध्या भवति, अतएव 'अविया उरी' देशी शब्दः, अविजनयित्री सर्वथा संतानाऽजननशीला संतानजननशक्तिरहिता, इत्यतः 'जाणुकोप्परमाया' जानु कूपरमाता, 'जाणु' जानुनी चरणयो मध्यभागी 'कोप्पर' परौ करयोमध्यभागौ तेषामेव 'माया' माता-जननी चाप्यासीत् ॥सू. २॥
मलम्-तस्स गं धण्णस्स सत्थवाहस्स पंथए नामं दासचेडे होत्था, सव्वंगसुंदरंगे मंसोवचिए बालकीलावण कुसले यावि होत्था, तएणं से धण्णे सत्थवाहे रायगिहे नयरे बहुणं नयरनियगसेट्टि सत्थवाहाणं अटारसह य सेणिप्पसेणोणं वसु कसु य कुडुबेसु य मंतेसु य जाव चक्खूभूए यावि होत्था, नियगस्त विय णं कुटुंबस्त बहुसु य कन्जेसु जाव चक्खुभूए यावि होत्था ॥सू. ३॥ जाणुकोपरमाया यावि होत्था) उसके कपोल मंडल पर जो चन्दनादिक की रेखा लगी रहती थी वह दोनों कानों के कुडलों से घर्षित होतो रहता यो। कात्तिकी पूर्गनासी के पूर्ण वन्द्र मंडल के समान इसका सौम्य-प्राङ्तादजनक-मुख था। इसका सुन्दर वेष श्रृंगाररस के घर जैसा था। फिर भी यह इतनी त्रिभुवन सुन्दरी होने पर भी बंध्या थी। ऐमो बंध्या थी-कि इसके प्रारंभ से ही संतान नही हुई थी-संतान जननशक्ति से यह बिलकुल रहित थी। यह तो केवल जानु और कूपर-करके मध्यभाग टेहनी की माता थी। ॥त्र २॥ अवियाउरी जाणुकोप्परमाया यावि होत्या) तमना पास ७५२ मनापामा આવેલી ચન્દન રેખાએ, બંને કાનમાં પહેરેલા કુંડળેથી ઘસાતી હતી. કાર્તિક પૂનમના ચન્દ્રમંડળની જેમ તેમનું મેં સૌમ્ય અને આલાદજનક હતું. ત્રિભુવન સુંદરી હોવા છતાં તે વંધ્યા હતી. શરૂઆતથી જ તેને એકે સંતાન થયું ન હતું. સંતાન જનન શક્તિ તેમનામાં સદંતર સમૂળ રૂપે હતી નહિ. એને તે સંતાન રૂપે ફકત ઢીંચણ અને કેણું જ હતાં. એ સૂત્ર ૨
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