Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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नगरी टीका अ१. मू ४७ मेवमुनेस्तपः शरवनम् शेन गुरुणा प्रदत्तत्वात्- 'पहिए' मगृहीतेन सविनयगृहीतेन बहुमानपूर्वक गृहीतस्वात् 'कल्लाणेणं' कल्याणेन=शुभजन केन- अग्रिमहित प्रापस्त्वात् 'सिवेणं' शिवेन= निरुपद्रवेण शिव हेतुत्वात् 'धन्नेणं' धन्येन=पसनीयेन निरतिचार समापकस्यात् ‘मंगलेणं' मंगल्येन = कुशलस्वरूपेण सकलदुरितोषयमकत्वात् उदग्गेणं' उदग्रेण = उत्तरोत्तर वृद्धिमता पराक्रमशालिसमाराधितत्वात् 'उदारएणं' उदारेण=मचलेन निःस्पृहत्वबाहुल्यात् 'उत्तमेणं' उत्तमेन = बेठेन अकामनिजरा वर्तित्वात् 'महाणुभावेण " महानुभावेन = महाप्रभावेण स्वर्गापवर्गादिहेतुत्वात् 'तोकम्मेण तपः कर्मणा 'मुक्के' शुष्कः नीरसशरीरत्वात् 'क्खे' बुभुक्षितः कठिनतपश्चर्यावशात् 'लुवखे' रूक्षः तैलाद्यभ्यङ्गरहितत्वात् 'निम्मंसे' निर्मासः तपसा दौर्बल्येन मांसोपचयरहितत्वात् अतएव 'निस्सोगिए' निःशोणितः तवर्धकाहाराद्यभावात् 'किडिकडयाए' किटिकटिकाभूतः मांसवर्जित जो मदत्त था (पग्ग हिएण ) बहुमानपूर्वक गृहीत होने के कारण जो प्रगृहीतथा कल्लाणेणं) अग्रिमहित का प्रापक होने के कारण जो शुभजनकथा (सिवेणं) शिवका हेतु होने से जो उपद्रव रहित था ( धन्नेणं) अतिचारों से रहित होकर समाप्त होने के कारण जो प्रशंसनीय था (गल्ले) सकल पापों का उपशमक होने के कारण जो कुशल स्वरूप था (उदग्गेणं) पराक्रमताली मेघकुमार अनगार द्वारा समाराधित होने के कारण जो उत्तरोत्तर वृद्धि से युक्त था - (उदारणं) निस्पृह की बहुलता विशिष्ट होने के कारण जो उदार था (उत्तमेन ) अकामनिर्जरा से रहित होने के कारण जो श्रेष्ठ था (महाणुभावेणं) स्वर्गापवर्ग आदि का हेतु होने से जो महाप्रभावशाली था (मुक्के खे लक्खे निम्मंसे निस्सोणिए क्रिडिकिडियाभूए) भूख से युक्त गु३द्वारा भषायेषु ं डोवा महल ने अत्त तु ((पग्गहिए) गडुन सन्मान स्त्रीअश्वामां श्राव्यु होवा महल ते प्रगति हुतु; ( कल्लाणे णं ) अभि हितनु आप होरा महा ने शुभ न तु (सिवेगं ) उदयालुनो हेतु होवा महा उपद्रव वगरनु ं स्तुं (धन्ने णं ) मतियार वगर समाप्ति सुधी चहायवा महा ने अशंसनीय हुतु. ( मंगले ) गधा पापोनु उपशम होवा महद ने डुशण स्व३५ तु. ( उदग्गेणं) भेघकुमार नेवा राहुभी अनगार द्वारा समराधित होवा महा ने दिवसे दिवसे वृद्धि युक्त तु : ' उदारए णं' निस्पृडुताना माडुदयथी युक्त होवा महा ने उधार उतु, (उत्तमेणं) मानिस कारनु होवा महाले उत्तम sg. (महाणु नावे ) स्वर्ग भने भोक्ष वगेरेनु अरण होरा महल ने महाअभाववाणु हुतु. तेने ४२वा साज्या लेनाथी (सुक्के मुक्खे लक्खे निम्मंसे निस्सो जिए किडे किडियाभूए) भेधदुभार लूच्या था गया, सरीरमां रुक्षता देखावा सांगी
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