Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनगारधर्मामृतवर्षि टीका. अ १ सू २० मेघकुमारपालनादिनिरूपणम २६५ पकरणविशेषः 'पाशा' इति भाषायोम्१२, 'अट्ठावयं' अष्टापदं-धूनविशेषं खेल नम्१३, 'पोरेकव्वं' पुरस्काव्यं, पुरतः पुरतःकाव्यं, काव्यरूपवाणी निस्सारणं शीध्र कवित्वमित्यर्थः१४, 'दगमट्टियं' दकमृत्तिकाम्, उदक युक्तमृत्तिकाप्रयोगविधिः, उदकमिश्रितमृत्तिकामयोगज्ञानम्, कुंभकार विद्येत्यर्थः, ताम् १५, 'अन्नविहि' अन्यविधिम् अन्ननिष्पादन विज्ञानम्, अन्नविहिं' इत्यत्र समवायाङ्गो. क्तम्य 'महुसित्थं' इत्यस्य समावेशः१६, 'पाणविहि' पानविधिम् १७, 'वस्थ. विहि' वस्त्रनिर्माणधारण विज्ञानम् १८, "विलेवणविहिं विलेपनविधि-चन्दना. दिचर्च नविपिन १९, 'आभरणविति' भरणविधि भूषणनिर्मागधारणविधिम् २०, गविहि' शबनविधिशच्या पर्यादिविशिमिज्ञानम् २१, 'अज्ज'
आर्या-मात्राउन्दोरूपां-मात्रा सम्मेलन छंदोनिर्माण विज्ञानम् २२, पहेलि' प्रहेलिकांग्रहाशय गद्यपद्यमयीरचनामः३. 'मागहिय' मागधिकां मगधदेशीयभाषणकवित्वम् २४, 'गाई' गाथांसंतराषानियद्धामार्यामेव कलिङ्गादिपाशककलां-पाशा खेलने की निपुणता का होना १२, अष्टापदकला विशेष जूआ का खेलना १३, पुरकाव्यकला-शीघ्रकवि होना १४, दगमतिका कला-कुंभकार की विधा में निपुण होना १५, अन्न विधिकला-अन्न पैदा करने की गति का जानना २६ पान विधिाला-पेयपदार्थ के विषय में जानना १७, वस्त्राविधिकला-वस्त्रके बनाने तथा उसके पहिरने की रीति का जानना १८, विलेपन विधिकला-चदन आदि चर्चने योग्य पदार्थ की विधि | जानना ५९, आभरण ििधवला-- भूषणों के बनाने और धारण करने की विधि का जानना २०. शयन विधिकला-शय्या. पर्यत आदि के विषय की जानकारी होना २१, आर्यकला-आर्याछंद के बनाने की रीति का जानना अर्थान मात्राओं के मिलाप से छद बनाने का ज्ञान होनः २२, प्रहेलिका-गृढआशयवाली गद्यपद्य रचना करना २३, मागधिकामगध देश की भाषा में कविता करना २४, गाथा मांस्कृत अथवा इतर वाम !! २ (१२) २५५. ॐ-को। ५७२ रनी २मत (13) पुरः
-4312-2ी विथ (१४) भूत !-Qभारनी विद्यामा निपुर थ. (१५) नव..!-मन 3412नी 11 वी (१६) पानविधि ४॥-पेयપદાર્થ વિશે જાણવું (૧૭) વસ્ત્રવિધિકળા–વસ્ત્ર બનાવવા તેમજ તેને પહેરવાની રીત જાણવી (૧૮) વિલેપન વિધિકળા-ચંદન વગેરે લેપન પદાર્થોને લગાવવાની વિધિ જાણવી. (૧૯) આભરણ વિધિકળા-આભૂષણોને બનાવવા અને ધારણ કરવાની વિધિ જાણવી. (२०) शयन विधि ४॥ शय्या ५४ वगैरेनी सामतनु शान थ, (२१) २४७॥આર્યા છન્દને બનાવવાની રીતિ જ થવી એટલે કે માત્રાઓના મેળાપથી છંદ બનાવવાનું જ્ઞાન થવું (૨૨) પ્રહેલિકા–ગંભીર અર્થ ધરાવતી ગદ્ય-પદ્યની રચના કરવી (૨૩) માગધિક-મગધદેશની ભાષામાં કવિતા કરવી (૨૪) ગાથા-સંસ્કૃત અથવા
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