Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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शाताधर्मकथासूत्रे वानीपु-चतुष्कोणयुक्तासु पोक्खरिणीसु य' पुष्करिणीषु-कमलयुक्तगोलाकारासु 'दाहियासु य' दीधिकासु च-दीर्घाकारवापीषु, 'गुजालियासु य' गुञ्जालिकासु च-वक्राकारवापीषु 'सरेमु य' सरःसु च तडागेषु, 'सरपंतियासु य' सरःपंक्तिकातेषु च-सरः श्रेणीषु, 'सरसरपंतियासु य' सरःसरः पंक्तिकासु च-परस्परं संलग्नेषु बहुषु तडागेषु-एकम्मात्सरसोऽन्यस्मिन् सर्गस जलागमयुक्तासु सरपंक्तिसु 'वणयरएहि वनचरें:-भिल्लादिभिः दिन्नवियारे दत्तवि. चार: दत्तविचरणमार्गः मरणभयादित्यर्थः बहुभिहस्तिनीभिश्च यावत् साधे संपरिवृतः स्वपरिवारयुक्तः इत्यर्थः'बहविह तरुपल्लवपउरपाणियतणे'बहाविधतरुपल्लव. प्रचुरपानीयतृणः, तत्र-बहुविधाः तरुपल्लवा: वृक्षपत्राणि प्रचुराणि पानीय तृणानि यस्य सः. भक्षणायपानाय प्रचुरपल्लवतृणजलसम्पन्नः इत्यर्थः 'निब्भए' निर्भयो वीरत्वात् 'निरुबिग्गे' निरुद्विग्न : उद्वेगवर्जितः अनुकूल विषयप्राप्त त्वात् सुखं सुखेन विहरसि ॥ ४०॥ कभी चतुष्कोण युक्त बावड़ियों मे (पोक्खरिणीसु य) कभी कमल युक्त गोलाकारवाली पुष्करिणियोंमें, (दीहियासु) कभी दीर्घ आकारवाली वात्रडियों में कभी (गुंजालियासु य ) वक्र आकारवाली वावडियों मे, (सरे सुय) कभी तडागोंमें (सरपंतियासु) कभी सरोवरों की श्रेणियों में (सरसर पंतियासु) कभी २ परस्पर संलग्न हुए अनेक तालाबों में (वणयरेहि दिन्नरियारे बहूहिं हथिहिं य जाव सद्धि संपरिवुडे) वनचरों से विना रोकटोक हुए तुम अनेक हथनियों आदिकों के साथ रहकर (बहुविहताल्लवपउरपाणियतले निम्भा निरुव्विग्गे सुहं सुहेणं विहरइ) अनेक प्रकार के वृक्षों के पत्तों को घास को खाते हुए और पानी पीते हुए विना किसी भय के उद्वेग रहित होकर सुख पूर्वक अपना समय व्यतीत कर रहे थे। ।। मूत्र ॥ ४० ॥ ध्या२४ या२ वाणी पावोम (पाकखरिणीसु य) ध्या२४ भ युत मारवाणी युरिणीमामा, (दोहियामु) च्या२४ भोट मा२ जी पावोमां, च्या२४ गुनालियासु य ) १४ (4ist) २२नी पावाभां, (सरेसुय ) ध्या२४ तावोमi, (सरपंतियास) या२४ सरोवर श्रेलियामा, (सरसरपंतियामुय) ज्या२४ मे मालथी सन थये घl anti, (वणयरेहि दिन्नवियारे वहहिं हत्थीहि य जाव सद्धिं संपरिवुडे ) वन्य प्राणीमाथी नि िथये। तमे घी डायणीमानी साथे २हीने (बहुविहतमपल्लवपउरपाणियतले निभए निरुबिग्गे सुहं सुहेणं विहरइ ) मने प्रारना वृक्षाना पi અને ઘાસને ખાતા અને પાણી પીતાં સુખેથી પિતાને વખત પસાર કરી રહ્યા हता. ॥ सूत्र "४०" ॥
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