Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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ज्ञाताधर्म कथाजपत्र परिपिच्यमाना, अतएव 'निवावियगायलट्री निर्वापित गात्रयष्टिः-निर्वापिता शीतली कृता गात्रयष्टि:-शरोरं यस्याः सा तथा, 'उक्खेवणतालविंट वीयणग. जणि यवाए' उत्क्षेपणतालमन्तवीजन जनितवातेन='उत्क्षेप्यते' इति उत्क्षेपणं, कर्मणि ल्युट् घाहुलकत्वात्, योज्यमानमित्यर्थः यत् ताल-तालपत्रनिर्मितं-व्यजनकं तजनितेन वातेन-पवनेन, फुसिएणं' सस्पृपता-सोदकविन्दुना जलप्लावितव्यजनकवीजनजनित पवनेनेति भावः, 'अतेउर परिजणेणं' अन्तःपुर-परिजनेन=सखीवर्गेण, 'प्रासासिया समाणी' आश्वासिता=गतमू . लब्धचेतनसंज्ञा सती, 'मुत्तावलि सन्निगासपवडंत अंसुधाराहि मुक्तावली संनिकाश पतदश्रुधाराभिः, नयन शुक्तिभ्यां मुक्तापङ्क्तय इव प्रपतन्त्यो या अश्रुधारा नेत्रजल विन्दुपरंपरा स्ताभिः 'मिंचमाणीपोहरे' सिञ्चन्ती पयोधरो, 'कलुणविमलदीणा' करुणविमनोदीना करणा-दुःखिता, विमना:= शोकाकुलचित्ताः, दीना-सतप्ता, 'रोयमाणी' रुदती= अश्रुपातं कुर्वती, 'कंद. उस पर छोडी गई उससे (निब्वावियगायलट्ठी) उस के शरीर में शान्ति
आई। (इक्खेवणत्तालविटवीयणगजणियवाएणं) उसी समय पंखा करने वाली दासियोंने उस पर तालपत्र निर्मित पंखा ढोरना प्रारंभ कर दियाउसकी हवा से (सफमिएष) जो जल की छोटी२ विन्दओं से यक्त थी तथा (अंते उर परिजणेणं) अंतःपुर की सखी वर्ग के (थासासिया समाणी) अनेक विध आश्वासनों से उस की मूर्छा नष्ट हो गई और प्रकृतिस्थ होकर-अर्थात् लब्ध चेतनो वाली बन कर (मुत्तावलिसन्निगासपवडंत अंसुधाराहि) वह मुक्तावली के जैसे निकलते हुए आंसुओं को धारस से (सिंचमाणी पओहरे) अपने स्तनों को सिश्चित करने लगी-(कलण. विमलदीण।) और दुःखित शोकाकुल चित्त एवं तप्त होकर (रोयमाणी) भावी तेथी (निव्वावियगायलट्ठी) तेनां शश२ शांति quil. ( उक्खेवणतालविंदवियणगजणियबाएणं) ५ो ४२नारी हासीमाये तापत्रयी मनेसो पंजी ४२वा भांडयो. तना पवनथी ( सफुसि एणं) रे पाणीना नाना नाना ४९५ तितो तेमन (अतेउरपरिजणेण) २वासनी मने सभी माना (आसासियासमोणी) मने विध मा वासनोथी तेमनी भू २ थमने ते। प्रतिस्थ यां-मर्थात तेमणे श येतन भगव्यु भने पछी (मु त्तावलि सन्निगासपवत अंसुधाराहिं ) तेथे मातीमोनी म टपतi मासुमानी पाराय(सिंचमाणी पोहरे) पातान! स्तनोने सियित ४२५॥ सायां. (कलुण विमल दीणा) मने भी वित्त मने सतत ने (रोयमाणी) २७१।
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