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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते
- डॉ० राधाचरण गुप्त, प्राध्यापक - गणित बिरला प्रौद्योगिकी संस्थान, मेसरा [रांची]
भारतीय संस्कृति में जम्बूद्वीप तथा सुमेरुपर्वत का विशेष स्थान है। ब्रह्मांड के वर्णन में उनकी विस्तृत चर्चा की गई है चाहे वह जैनागमों पर आधारित हो या वैदिक तथा बौद्ध ग्रंथों पर। जैनधर्म में तो जम्बूद्वीप तथा उसके सुदर्शन मेरु और चैत्यालयों की विशेष पूजा का विधान है।
प्राचीनकाल में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के समय हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने सुमेरु पर्वत का जो स्वप्न देखा था, उसको साक्षात् रूप देने का पूर्ण श्रेय निःसंदेह गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी को ही है। हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप और सुमेरु पर्वत का मूर्तरूप (model) उनकी दूरदर्शिता का जीता जागता उदाहरण है।
उस भव्य निर्माण को देखकर कोई भी दर्शक प्रेरित हुए बिना नहीं रह सकता। वहाँ श्री ज्ञानमती माताजी का सानिध्य तो सोने में सहागा जैसा है। आशा है कि वहाँ स्थापित ज्ञानज्योति तथा माताजी का मार्गदर्शन लोगों को सत्य, अहिंसा और नैतिकता के पथ पर चलने की प्रेरणा देता रहेगा तथा उन्हें सम्यग्जञान दृष्टि प्राप्त होगी। 'नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।'
न्यायविद् विदुषी आर्यिकारत्न
- डॉ० धर्मचन्द्र जैन, संस्कृत एवं प्राच्यविद्या संस्थान,
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
श्रद्धेय पूज्या गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी जैन धर्म-दर्शन की अप्रतिम विदुषी हैं। आपने अपना समस्त जीवन प्राच्यविद्या जिनवाणी के प्रचार-प्रसार एवं धर्मोन्नयन में लगा दिया और आज भी आप इसी साधना में संलग्न हैं। इससे जहाँ एक ओर सन्त समाज को उन पर गौरव है. वहीं दूसरी ओर समाज भी आप जैसी महान् न्यायविद् आर्यिका को पाकर धन्य है।
आपमें विद्वत्वर्ग के प्रति प्रबल वात्सल्य-भावना है, कारण है कि आप स्वयं ही एक उच्चकोटि की मनीषी विद्वान् हैं। जैन वाङ्मय की ऐसी कोई भी विद्या अवशिष्ट नहीं रही, जिस पर आपकी अचूक लेखनी न चली हो। जैन दर्शन के अष्टसहस्री जैसे दुरुह ग्रन्थ का आपने देवनागरी में अनुवाद कर जैन न्याय के अध्येताओं का मार्ग प्रशस्त किया है। आपने लगभग १५० ग्रन्थों का प्रणयन किया है, जिसमें कतिपय मौलिक तथा अधिकांशतः सम्पादित एवं अनुवादित हैं। यह आपकी महान् धार्मिक-साहित्यिक सेवा अक्षुण्ण रहेगी।
आप सचमुच महान् पुण्यशालिनी हैं, चूँकि हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की सजीव रचना करवाकर आपने जैन संस्कृति को अधिक उजागर किया है।
आप स्वभाव से सरल, मृदु-मधुर संभाषी और तपोनिष्ठ साध्वी हैं। आप जैसी महामनीषी, विदुषी आर्यिकारत्न का अभिवन्दन करते हुए समाज ने अपनी गुण ग्राहकता का ही समुचित परिचय दिया है।
आर्यिकारत्न माताजी शतायु हों और ज्ञान-गरिमा से निरन्तर धर्मप्रभावना करती रहें, ऐसी मेरी हार्दिक मंगलकामना है। चरण कमलों में कोटिशः प्रणाम।
"यथा नाम तथा गुण"
- डॉ० लालचन्द जैन, वैशाली
ज्ञान की मूर्तिस्वरूप परम पूज्या आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी ने श्रमण संस्कृति का प्रवाह बहाकर अपने नाम को अक्षरशः सत्य सिद्ध कर दिया। पू० माताजी का त्यागमय जीवन श्रमण संस्कृति का अद्भुत प्रतीक है। उनका वैराग्य और संयम इस बात का साक्षी है कि अपनी आत्मा का विकास कर जीव आध्यात्मिक साकर्ष कर शांति और अनुपम सुख का उपभोग कर सकता है।
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