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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
अष्टसहस्री की उपयोगिता को ध्यान में रखते हए लम्बे समय से इसके प्रामाणिक संस्करण और मूलानुगामी विशद हिंदी अनुवाद की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी। प्रमेयरत्नमाला के हिन्दी टीकाकार सिद्धान्ताचार्य पं. हीरालाल शास्त्री ने लिखा है कि उनके गुरु श्रद्धेय पं. घनश्यामदास जी न्यायतीर्थ अष्टसहस्री का अनुवाद करने का विचार कर रहे थे। वृद्धावस्था के कारण वे अपने विचार को मूर्त रूप नहीं दे सके। आत्ममीमांसा की पं. जयचन्द्र जी छाबड़ा ने वचनिका लिखी। आधुनिक काल में आदरणीय पं. जुगलकिशोर मुख्तार, पं. मूलचन्द्र शास्त्री एवं पं. उदयचन्द्र जैन सर्वदर्शनाचार्य ने भी आत्ममीमांसा पर अपनी व्याख्यायें लिखीं। इन सबका आधार अष्टशती, अष्टसहस्री तथा देवागमवृत्ति ही रही। अष्टसहस्री का स्वतंत्र अनुवाद नहीं हो सका था। हमारे गुरुवर्य श्रद्धेय धं. कैलाशचन्द्र शास्त्री न्याय के प्रौढ़ विद्वानों को अष्टसहस्री का प्रामाणिक संस्करण निकालने की प्रेरणा देते रहते थे। विद्वानों के मुख से सुना भी कि वे अष्टसहस्री पर कार्य कर रहे हैं, किन्तु उनका कार्य समाज के सामने नहीं आया। एक बार जैन विश्वभारती द्वारा आयोजित संगोष्ठी में भाग लेने हेतु जब मैं दिल्ली गया तो मुझे ज्ञात हुआ कि अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने अष्टसहस्री ग्रंथ का अनुवाद किया है तो सुनकर मेरा हृदय प्रसन्नता से भर गया; क्योंकि अष्टसहस्री आचार्य के पाठ्यक्रम में थी और बिजनौर आ जाने के कारण उसका गुरुमुख से अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका था, स्वयं की इतनी सामर्थ्य नहीं थी कि मूल ग्रंथ को बिना अनुवाद का सहारा लिए समझ सकता। ऐसी स्थिति में अष्टसहस्री प्रकाशन की चर्चा सुन मैं पूज्य आर्यिका ज्ञानमती जी के दर्शन हेतु उनके ठहरने के स्थल पर जा पहुँचा; क्योंकि सौभाग्य से माताजी उन दिनों दिल्ली में ही थीं। जाकर माताजी के चरणों में नमस्कार कर निवेदन किया कि माताजी आपके द्वारा अनूदित अष्टसहस्री चाहिए। माताजी से मेरा यह प्रथम परिचय था, किन्तु माताजी ने वात्सल्य भाव से मुझे अष्टसहस्री देने की कृपा की। यह उनकी अनूदित रचना का प्रथम भाग था। पूछने पर ज्ञात हुआ कि शेष भाग अभी छपे नहीं हैं। तब से अन्य भागों को मुद्रित देखने की अभिलाषा जारी रही, इस बीच माताजी की प्रेरणा से हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप का निर्माण प्रारम्भ हो गया और माताजी का वह ग्रंथ किसी कारणवश प्रकाशित न हो सका। इस बीच यद्यपि वे अन्य ग्रंथों की रचनायें करती रहीं, अनेक ग्रंथ प्रकाश में भी आए, किन्तु अष्टसहस्री के शेष भागों के प्रकाशन में विलम्ब हो गया। एक बार अपने डी.लिट. के शोधकार्य हेतु अष्टसहस्री के पूरे अनुवाद को देखने की मुझे आवश्यकता पड़ी। इसके लिए मैं १५, २० दिन हस्तिनापुर रहकर माताजी की हस्तलिखित अनुवाद की कापियाँ देखकर उपयोगी नोट्स लेता रहा । यहाँ भी माताजी ने मेरे प्रति अत्यधिक उदारता का परिचय दिया। एक बार मैंने माताजी से कहा था-माताजी! आपके अष्टसहस्री के अनुवाद का कार्य इस जम्बूद्वीप रचना (जो हस्तिनापुर में उस समय हो रही थी) से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। आप शेष भागों का भी प्रकाशन कराइए। अन्त में वह सुदिन भी आया कि माताजी द्वारा अनूदित पूरी अष्टसहस्री का प्रामाणिक संस्करण अनुवाद के साथ तीन भागों में प्रकाशित हुआ । यद्यपि न्याय के ग्रंथों की भाषा कठिन होती है, किन्तु माताजी ने अत्यन्त सरल भाषा में अष्टसहस्री का अनुवाद किया है। उन्होंने अपनी टीका का नामकरण "स्याद्वाद चिन्तामणि" किया है, जो सार्थक है। इस ग्रंथ के अनुवाद में शब्दशः अर्थ करके यथास्थान भावार्थ और विशेषार्थ देकर विषय को स्पष्ट किया गया है। प्रायः प्रकरणों के पूर्ण होने पर उन-उन विषयों के सारांश दिए गए हैं। मुद्रित मूल प्रति के साथ हस्तलिखित प्रतियों का उपयोग करते हुए पादटिप्पणियाँ भी सम्मिलित हैं। अनुवाद १९७० में पूर्ण हो गया था। १९९० तक यह तीन भागों में छपा । इन वर्षों में माताजी ने ग्रंथ को और भी अधिक उपयोगी बनाने की दृष्टि से उसके पाठान्तर लिए और आवश्यक संशोधन किए। इस ग्रंथ में चार आचार्यों की रचनाएं हैं, उन्हें पृथक-पृथक रूप में टाइप बदलकर दिखाया गया है। श्री समन्तभद्र स्वामी की कारिकाओं को २४ नं. काले टाइप में लिया गया है, अष्टशती को १६ नं. काले टाइप में लिया है और अष्टसहस्री को १६ नं. सफेद टाइप में दिया गया है। इसकी हिन्दी ४ नं. सफेद टाइप में है। ग्रंथ में जितने शीर्षक हैं, वे सब माताजी द्वारा बनाए गए हैं। अनुवाद से पूर्व माताजी ने मुनि, आर्यिका और व्रती श्रावकों को अष्टसहस्री पढ़ाई थी। अध्यापन के समय ग्रंथ का जैसा विशद व्याख्यान अपेक्षित होता है, उसी का प्रभाव अनुवाद में स्थान-स्थान पर लक्षित होता है। तृतीय भाग के पुरोवाक् में माताजी ने प्रथम से लेकर दशम परिच्छेद तक के वर्ण्य विषय पर अतिसंक्षेप रूप में प्रकाश डाला है। अनन्तर आचार्य उमास्वामि, आचार्य समन्तभद्र, भट्ट अकलङ्कदेव
और आचार्य विद्यानंद का जीवन परिचय उनकी रचनाओं के परिचय के साथ प्रामाणिक स्रोतों के आधार पर प्रस्तुत किया है। अनन्तर आर्यिका चन्दनामती ने अष्टसहस्री की महिमा और टीकाकर्ची गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी का परिचय प्रस्तुत किया है। चूँकि हस्तिनापुर में रहते हुए माताजी ने इसका प्रकाशन कराया है, अतः क्षु, मोतीसागर जी दानतीर्थ हस्तिनापुर का भी संक्षिप्त परिचय दिया है। अनन्तर उन्होंने अष्टसहस्री रचना में पूज्य माताजी के श्रम का आकलन करने का प्रयास किया है। अष्टसहस्री की महत्ता के विषय में उन्होंने स्व. पं. जुगलकिशोर मुख्तार की पुस्तक देवागम अपरनाम आप्तमीमांसा के अनुवादकीय का हवाला देते हुए लिखा है कि एक बार खुर्जा के सेठ पं. मेवाराम जी ने बतलाया था कि जर्मनी के एक विद्वान ने उनसे कहा है कि जिसने अष्टसहस्री नहीं पढ़ी, वह जैनी नहीं और अष्टसहस्री पढ़कर जो जैनी नहीं हुआ, उसने अष्टसहस्री को समझा नहीं। ऐसे ग्रंथ के संशोधन में माताजी को कठिन परिश्रम करना पड़ा। अंतिम प्रूफ भी माताजी को स्वयं देखने पड़े। द्वितीय भाग का पुरोवाक् माताजी ने लिखा। इसमें उन्होंने मोक्ष के कारण की समीक्षा, संसार की समीक्षा, संसार के कारण की समीक्षा, प्रागभाव, शब्द की मूर्तिकता तथा भावाभावाद्यनेकान्त पर प्रकाश डालते हुए अष्टसहस्री ग्रंथराज का महत्त्व बतलाया है। क्षुल्लक मोतीसागर जी ने ग्रंथ का अनुवाद तथा प्रकाशन क्यों? कब एवं कैसे? शीर्षक लेख लिखा है। इससे ज्ञात होता है कि आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने भी अनूदित कापियों के कुछ पृष्ठ पढ़कर संतोष व्यक्त किया था। एक अन्य बात मोतीसागर जी ने लिखी है कि भगवान महावीर से लेकर आज तक जितने भी ग्रंथ लिखे गए, सब पुरुष वर्ग द्वारा ही लिखे गए, किसी श्राविका अथवा आर्यिका द्वारा लिखित एक भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता। महिलाओं द्वारा किसी जैन ग्रंथ के लिखे जाने का शुभारंभ आर्यिका ज्ञानमती जी ने किया। अष्ट
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