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वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला
जम्बूद्वीप की परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताइस योजन तीन कोस एक सौ अट्ठाइस धनुष और कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल है। अर्थात् एक अरब छब्बीस करोड़ उनचास लाख आठ हजार छः मील के लगभग जम्बूद्वीप की परिधि बैठती है।
जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल सात सौ नब्बे करोड़ छप्पन लाख चौरानवे हजार एक सौ पचास योजन है, अर्थात् तीन नील सोलह खरब बाईस अरब सत्ततर करोड़ छ्यासठ लाख मील जम्बूद्वीप के भूमंडल का क्षेत्रफल है। प्रश्न-आपने जम्बूद्वीप का परिमाण बहुत लम्बा-चौड़ा बताया, कृपया आप यह बताने का कष्ट करें कि ग्रंथों में पाये जाने वाले इस जम्बूद्वीप का नक्शा या मॉडल या इस रचना का निर्माण कहीं पर उपलब्ध है क्या? उत्तर-आपका यह प्रश्न भी अति उत्तम है। जम्बूद्वीप की रचना का निर्माण पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से भारतवर्ष के उत्तर प्रदेश के अंतर्गत हस्तिनापुर नामक तीर्थ पर किया गया है। यह हस्तिनापुर दिल्ली से १०० कि०मी० तथा मेरठ से ४० कि०मी० दूरी पर है।
__ पूज्य माताजी की प्रेरणा से दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान नामक एक संस्था का निर्माण सन् १९७२ में दिल्ली में किया गया जिसके अंतर्गत जैन शास्त्रों के आधार से हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप का निर्माण कराया गया है। वर्तमान में हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप एक दर्शनीय स्थल के रूप में विकसित हो चुका है। जिसे देखने के लिये देश-विदेश तथा सभी जातियों के व धर्मों के लोग प्रतिदिन आते रहते हैं। प्रश्न-जम्बूद्वीप निर्माण के लिये पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर को ही क्यों चुना? उत्तर-हस्तिनापुर को चुनने के कई उद्देश्य हो सकते हैं जिसमें सर्वप्रथम तो यह जैनधर्म का अतिप्राचीन तीर्थ है। भगवान् शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ जैन धर्म के इन तीन तीर्थंकरों ने इसी हस्तिनापुर में जन्म लेकर ६ खंड की पृथ्वी का शासन किया था। जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव का एक वर्ष के उपवास के पश्चात् इसी हस्तिनापुर तीर्थ पर प्रथम पारणा हुई थी। उस समय की एक और रोचक घटना इस निर्माण से जुड़ जाती है जिसके बारे में मैं यहां आपको बताना आवश्यक समझता हूँ।
आज से करोड़ों वर्ष पूर्व हस्तिनापुर में सोमप्रभ और श्रेयांस कुमार नाम के इतिहास प्रसिद्ध राजा हुए हैं। एक समय रात्रि के अंतिम भाग में राजा श्रेयांस ने ७ स्वप्न देखे। उन स्वप्नों में सर्वप्रथम सुमेरु पर्वत देखा था। जिसका फल यह बताया गया था कि सुमेरु पर्वत पर जिनका जन्माभिषेक हुआ है
और जो सुमेरु पर्वत के समान महान् हैं, ऐसे महापुरुष का आपको दर्शन मिलने वाला है। प्रातः होते ही युगादि ब्रह्मा भगवान् ऋषभदेव का हस्तिनापुर में मंगल आगमन होता है। उनके दर्शन करते ही राजा श्रेयांस को अपने आठवें भ्व पूर्व का जाति स्मरण हो आता है। जिससे उन्हें आहार दान की विधि ज्ञात हो जाती है। भगवान् ऋषभदेव ने दीक्षा लेते ही छ: माह का योग ले लिया था और पिछले छः माह से उन्हें आहार की विधि नहीं मिल रही थी, जिससे एक वर्ष के उपवास के पश्चात् आज राजा श्रेयांस व सोमप्रभ को यह पुण्ययोग प्राप्त होता है। अतः विधिवत् नवधा भक्ति से पड़गाहन कर भगवान् ऋषभदेव को राजा श्रेयांस व सोमप्रभ इक्षु रस का आहार देते हैं, वह दिन वैशाख शुक्ला तीज का था, इसीलिए यह तिथि आज अक्षय तृतीया के नाम से जगप्रसिद्ध हो गई है और अत्यंत शुभ तिथि मानी जाती है। इसी आहार के निमित्त से अक्षय तृतीया पर्व का शुभारंभ इसी हस्तिनापुर से हुआ है।
कैसा सुंदर योग इस जम्बूद्वीप के निर्माण को प्राप्त हुआ कि जिस सुमेरुपर्वत के दर्शन राजा श्रेयांस ने करोड़ों वर्ष पूर्व इसी हस्तिनापुर में स्वप्न में किये थे, उसी सुमेरु पर्वत को साकार रूप देने का श्रेय पूज्य ज्ञानमती माताजी को इसी हस्तिनापुर में प्राप्त हुआ और पूज्य माताजी की प्रेरणा से केवल सुमेरु पर्वत ही नहीं, बल्कि जिसके मध्य में सुमेरु पर्वत है, ऐसे सुमेरु से सहित सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का निर्माण हस्तिनापुर में कराया गया है, जिसमें चौरासी फुट ऊँचा सुमेरु पर्वत बना है। जम्बूद्वीप के चारों तरफ लवण समुद्र, नदियाँ, बाग-बगीचे, फौव्वारे आदि प्राकृतिक दृश्यों को भी निर्मित किया गया है तथा जम्बूद्वीप के अंतर्गत ७८ अकृत्रिम जिनचैत्यालयों में विराजमान जिनप्रतिमाओं के दर्शन से दर्शकों को आध्यात्मिक शांति का अनुभव प्राप्त होता है। इसके साथ ही जैनाचार्यों द्वारा मान्य भूगोल के विषय में शोधार्थियों एवं वैज्ञानिकों के लिए यह एक दिशा-निर्देश भी है। प्रश्न : जम्बूद्वीप के अंतर्गत जो सुमेरु पर्वत बनाया गया है, क्या इसकी कुछ खास विशेषता है? उत्तर : जैन सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक चतुर्थ काल में चौबीस तीर्थंकर जन्म लेते हैं। हम और आप जैसे क्षुद्र प्राणियों में से ही कोई भी प्राणी सोलह कारण भावनाओं के बल से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर सकता है और अगले भव में ीर्थंकर जैसे महापुरुष के रूप में जन्म लेकर अपनी आत्मा को परमात्मा बना सकता है। ऐसे-ऐसे अवतारी तीर्थंकरों का जब-जब जन्म होता है, तब-तब इंद्रों के आसन कंपित हो जाते हैं और वे भक्ति में विभोर होकर स्वर्ग से इस मनुष्य लोक में ऐरावत हाथी पर चढ़कर आते हैं तथा उस नवजात तीर्थंकर शिशु को प्रसूति गृह से लाकर सुमेरु पर्वत पर ले जाते हैं, जहाँ असंख्य देवों के महावैभव के साथ भगवान् का जन्मकल्याणक महोत्सव मनाते हैं। एक हजार आठ (१००८) कलशों से भगवान् का जन्माभिषेक करके अपने को धन्य करते हैं। इस चतुर्थकाल में भगवान् ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर व भगवान् महावीर अंतिम चौबीसवें तीर्थंकर हो चुके हैं। इन सभी तीर्थंकरों का जन्माभिषेक इसी सुमेरु पर्वत पर इंद्रों के द्वारा किया गया था। इसीलिए यह असंख्यातों तीर्थंकरों के जन्माभिषेक से पवित्र सर्वोत्कृष्ट एवं त्रैलोक्य पूज्य पर्वत माना गया है। यह पर्वत देव, इन्द्र, मनुष्य, विद्याधर एवं महामुनि सभी से वंदनीय है। वर्तमान भारतवर्ष से लगभग २० करोड़ मील की दूरी पर यह सुमेरु पर्वत विदेह क्षेत्र के अंतर्गत विद्यमान है। तीनों लोकों में सबसे ऊँचा यही पर्वत है, इसी के प्रतीक में इक्यानवे फुट ऊँचा सुमेरु पर्वत हस्तिनापुर में बनाया गया है।
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