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वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला
दीक्षा धारण की जाती है। जैसा कि कुंदकुंद स्वामी ने कहा है
आदहिदं कादव्वं जइ सक्कइ परहिदं च कादव्वं । . . . . इत्यादि ।
आत्महित की प्रमुखता से ही दीक्षा लेना सर्वोत्तम कार्य है, परहित उसके साथ हो जावे तो ठीक है, किन्तु मात्र परहित का ही लक्ष्य रखना आत्महित में बाधक हो सकता है।
जैसी कि वर्तमान परंपरा चल रही है
पश्चात् सभामंडप में पूर्वमुख या उत्तर मुख उसे बैठाकर गणिनी आर्यिका सर्वप्रथम केशलोंच प्रतिष्ठापन में सिद्ध भक्ति योगभक्ति पढ़कर दीक्षार्थी का केशलोंच प्रारंभ कर देती हैं।
देखते ही देखते सभामंडप में असीम वैराग्य का दृश्य उपस्थित हो जाता है। कई बार देखने में आता है कि वह बहन स्वयं भी वीरतापूर्वक अपना केशलोंच करती हैं।
वह ममता जिसने बालिका को दुग्धपान के साथ अपने आंचल की छाँव दी थी, वे कलाइयाँ जिन्होंने सदा बहन के रक्षासूत्र को अंगीकार किया था, वह गोद जिसने कन्यारत्न को झूले की भाँति झुलाया था, वह स्नेहिल परिवार जिसने सदैव उसके सुख-दुःख में हाथ बंटाया था, सभी उस क्षण वैराग्य की मोहिनी मुद्रा के प्रति नतमस्तक हो जाते हैं तथा कोई-कोई चिरकालीन मोहवश अश्रुधारा से अपना मलिन हृदय भी निर्मल करते हैं।
मानव जीवन की दुर्लभता का चिन्तन करने पर ही संसार से वैराग्य होता है और दीक्षा के शुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं। महान् पुण्योदय से जब कोई महिला दीक्षा के लिए अग्रसर होती है, तब उसकी सर्वप्रथम परीक्षा केशलोंच की क्रिया से प्रारंभ होती है।
जब पांडाल में गणिनी आर्यिका जी एवं अन्य आर्यिकाओं के द्वारा केशलुश्चन सम्पन्न कर दिया जाता है, तभी उसके आगे दीक्षा की क्रिया प्रारंभ होती है।
केशलोंच के पश्चात् उस श्राविका को सौभाग्यवती महिलाएं मंगल स्नान के लिए ले जाती हैं, जहाँ मंगल स्नान कराकर मात्र एक साड़ी जैसा कि उन्हें अब जीवन भर एक साड़ी ही धारण करनी है, उसे पहनाकर पुनः मंगल गीत गाती हुईं महिलाएं उस श्राविका को पुनः स्टेज पर लाती हैं।
चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की संघ परम्परानुसार दीक्षा से पूर्व मंच पर वह श्राविका जिनेन्द्र भगवान का पंचामृत अभिषेक पूजन करती है, पुनः श्रीफल लेकर गुरु चरणों में समस्त जनता की साक्षी पूर्वक दीक्षा के लिए निवेदन करती है। जिन्हें भाषण देने का अभ्यास होता है, वे मंच पर खड़ी होकर दीक्षा की प्रार्थना हेतु वैराग्यप्रद भांवों से युक्त कुछ भाषण भी करती हैं और अपने परिवारजनों एवं प्राणिमात्र से क्षमा याचना करती हुई सभी के प्रति स्वयं का क्षमाभाव भी प्रकट करती हैं।
गुरु की पुनः पुनः स्वीकृति प्राप्त होने के पश्चात् वे आचार्य अथवा गणिनी सौभाग्यवती महिलाओं के द्वारा पूरे गए मंगल चौक पर दीक्षार्थी महिला को पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठा देते हैं। दीक्षा प्रदान करने वाली गणिनी आर्यिका अथवा आचार्य पहले उस दीक्षार्थी से कहते हैं कि तुम्हें हमारे संघ की मर्यादा और अनुशासन में रहना होगा, एकाकी विहार नहीं करना एवं ख्याति, लाभ, पूजा में पड़कर अपनी गुरु परम्परा को नहीं तोड़ना इत्यादि बातें तुम्हें मंजूर हैं तो मैं दीक्षा के संस्कार प्रारम्भ करता हूँ।
जब वह दीक्षार्थी महिला गुरु की सभी बातों को स्वीकार कर लेती है, तब गुरुवर्य अपने संघस्थ सभी साधुओं से, दीक्षार्थी के कुटुम्बियों से एवं वहाँ पर उपस्थित समस्त जन समूह से पूछते हैं कि क्या इसे दीक्षा दी जावे? तब सभी साधुवर्ग भी धर्म वृद्धि से हर्षितमना होते हुए सहर्ष स्वीकृति देते हैं और श्रावकगण व दीक्षार्थी के कुटुम्बीवर्ग भी दुःखमिश्रित हर्षपूर्वक जय-जयकार की ध्वनि से सभा को गुंजायमान करते हुए स्वीकृति देते हैं।
बस फिर क्या है, शास्त्रों में वर्णित दीक्षा विधि के अनुसार गणिनी के द्वारा दीक्षार्थी के मस्तक पर बीजाक्षर लिखकर पीले तंदुल और लवंग से मंत्रों का आरोपण किया जाता है। उसके हाथ में बीजाक्षर लिखकर तथा दोनों हाथों की अंजुलि में तंदुल भरकर उसमें श्रीफल आदि मंगल द्रव्य रखकर पुनः उन्हें अट्ठाईस मूलगुण प्रदान करती हैं। पुनः अपनी गुरु परम्परानुसार गुर्वावली को पढ़कर मंत्रों द्वारा गणिनी स्वयं संयम का उपकरण मयूर पंख की पिच्छिका, शौच के लिए उपकरण स्वरूप नारियल का कमंडलु और ज्ञान का उपकरण शास्त्र प्रदान करती हैं। शिष्या भी विनयपूर्वक दोनों हाथों से पिच्छिका को, बाएं हाथ से कमंडलु को और दोनों हाथों से शास्त्र को ग्रहण करती हैं।
इन्हीं संस्कारों के साथ ही गुरु द्वारा उस नवदीक्षिता का नवीन नामकरण भी किया जाता है, तभी नये नाम वाली आर्यिका माताजी की जयकारों से पंडाल गूंजने लगता है। सारी वेशभूषा और क्रियाओं के परिवर्तन के साथ ही नाम भी परिवर्तित हो जाने से अब वह पूर्ण रूप से नवजीवन में प्रवेश कर जाती है।
पुनः नवदीक्षिता आर्यिका सर्वप्रथम भक्तिपूर्वक दीक्षागुरु को नमोऽस्तु-वंदामि करके अन्य साधु-साध्वियों को नमोस्तु-वंदामि करके साधु श्रेणी में ही बैठ जाती हैं।
उस नवदीक्षिता आर्यिका को सर्वप्रथम कुछ दम्पति श्रीफल आदि चढ़ाकर "वंदामि" कहकर नमस्कार करते हैं।
यह विशेष ज्ञातव्य है कि दीक्षा के दिन उस दीक्षार्थी महिला का उपवास रहता है। द्वितीय दिवस पारणा के लिए गणिनी आर्यिका के पीछे श्रावकों के घर में आहार हेतु जाती हैं। वहाँ पर श्रावक विधिवत् पड़गाहन करके नवधा भक्ति से आहार दान देकर अपना जन्म सफल समझते हैं।
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