Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 773
________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ७०५ णमोकार मंत्र, चत्तारिमंगल एवं सरस्वती की प्रतिमा वंदनीय है या नहीं? प्रस्तुति-आर्यिका चन्दनामती [कुछ आगम एवं सामयिक विषयों पर पू० गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से हुई चर्चाः-] चन्दना- पूज्य माता जी। जिस णमोकार महामन्त्र को सभी जैन लोग उच्चारण करते हैं उसके बारे में मैं आपसे कुछ पूछना चाहती हूँ। श्री ज्ञानमती माताजी- पूछो, क्या पूछना है? चन्दना- णमोकर मन्त्र के प्रथम पद को कोई तो "णमो अरिहंताणं" पढ़ते हैं तथा कुछ लोगों को "णमो अरहताणं" भी पढ़ते देखा है। इस विषय में आगम का क्या प्रमाण है? श्री ज्ञानमती भानाजी- आगम-सूत्रग्रन्थ/धवला की प्रथम पुस्कत में इस विषय का अच्छा खुलासा है। उसी के आधार पर मैं तुम्हें बाताती हूँ। "णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं ___ णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्साहूणं ।। धवला के मूल मंगलाचरण में यही मन्त्र आया है जिसमें "अरिहंताणं" पाठ ही लिया है। आगे टीकाकार श्री वीरसेन स्वामी ने और टिप्पणकार ने "अरहंताणं" पद को भी शुद्ध माना है। इसी का स्पष्टीकरण १- "अरिहननादरिहंता" अर्थात् केवलज्ञानादि सम्पूर्ण आत्म गुणों के आविर्भाव को रोकने में समर्थ होने से मोह प्रधान अरि/शत्रु है और उस शत्रु के नाश करने से “अरिहंत" यह संज्ञा प्राप्त होती है। २- "रजो हननाद्वा अरिहंता" अथवा रज अर्थात् आवरण कर्मों के नाश करने से अरिहंत हैं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मधूलि की तरह बाह्य और अन्तरंग स्वरूप समस्त त्रिकाल गोचर अनन्त अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय स्वरूप वस्तुओं को विषय करने वाले बोध और अनुभव के प्रतिबन्धक होने से रज कहलाते हैं, उनका नाश करने वाले अरिहन्त हैं। ३- "रहस्याभावाद्वा अरिहन्ता" अथवा रहस्य के अभाव से भी अरिहन्त होते हैं। रहस्य अंतराय कर्म को कहते हैं। अन्तराय कर्म का नाश शेष तीन घातिया कर्मों के नाश का अविनाभावी है" और अन्तराय कर्म के नाश होने पर अघातिया कर्म भ्रष्ट बीज के समान निःशक्त हो जाते हैं। ऐसे अन्तराय कर्म के नाश से अरिहंत होते हैं। णमोअरहताणं पद भी ठीक है। जैसा कि धवला ग्रन्थ के अनुसार ४- "अतिशयपूजाईत्वाद्वार्हन्तः" अथवा सातिशय पूजा के योग्य होने से अर्हन्त होते हैं। क्योंकि गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल और निर्वाण इन पांचों कल्याणकों में देवों द्वारा की गई पूजाएं देव, असुर और मनुष्यों को प्राप्त पूजाओं से अधिक अर्थात महान् है, इसलिए इन अतिशयों के योग्य होने से अर्हन्त होते हैं। यहाँ “अर्ह" धातु पूजा अर्थ में है उससे "अरहन्त" बना है। इस प्रकार आगम के आधार से तो णमो अरिहंताणं और णमो अरहंताणं दोनों ही पद ठीक हैं इनके उच्चारण में कोई दोष नहीं है। फिर भी मूल पाठ अरिहंताणं है अतः हम लोग अरिहन्ताणं ही पढ़ते हैं। चन्दना- णमोकार मंत्र में कितनी मात्रायें हैं? श्री ज्ञानमती माताजी-महामंत्री णमोकार मंत्र में 58 मात्रायें हैं णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झयाणं णमो लोए सव्व साहूणं ।5।।555 15 155 1551155 15 15555 15 55 s। 555 विशेष- छंदशास्त्र में ह्रस्व की एक मात्रा और दीर्घ की दो मात्रा लेते हैं, इस दीर्घ को द्विखंडाकार से लिखते हैं। इस तरह प्रथम पद में ११ मात्रा, द्वितीय पद में ८, तृतीय पद में ११, चतुर्थ पद में १२ एवं पंचम पद में १६ मात्रायें, ऐसे सब मिलकर ११+८+११+१२+१६८.५८ मात्रायें हैं। व्याकरण के नियम से संयुक्ताक्षर के पूर्व को दीर्घ मानने से उवज्झायाणं के "व" और सव्व के "स" को दीर्घ लिया है किन्तु सिद्धाणं के "सि" को ह्रस्व की रखा है क्योंकि संयुक्त के पूर्व वर्ण पर यदि स्वराघात न हो तो छंदशास्त्र में उसे ह्रस्व मानते हैं ऐसा वर्णन आया है। चन्दना- इसका समाधान तो हो गया। एक दूसरा प्रश्न भी आज हम सबके सामने है कि जो चत्तारि मंगल का पाठ पढ़ा जाता है उसमें बहुत सारे लोग तो विभक्तियां लगाकर पढ़ते हैं। जैसे- अरहन्ता मंगलं, सिद्धा मंगलं, अरहन्ता लोगुत्तमा या अरहन्ते सरणं पव्वज्जामि इत्यादि । आप तो बिना विभक्ति का पाठ पढ़ती हैं तथा हम लोगों को भी बिना विभक्ति वाला पाठ ही पढ़ने को कहती हैं, किन्तु इसमें आगम प्रमाण क्या है? कृपया बताने का कष्ट करें। श्री ज्ञानमती माताजी- इस विषय में आगम प्रमाण जो मेरे देखने में आया वह क्रियाकलाप नामक ग्रन्थ है। जिसे पण्डित श्री पन्नालाल जी सोनी ब्यावर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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