Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 774
________________ ७०६] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला वालों ने सम्पादित करके छपवाया था। उस क्रियाकलाप की उन्हें कई हस्तलिखित प्राचीन प्रतियां भी उपलब्ध हुई थीं। उन प्रतियों के आधार पर पण्डित जी ने क्रियाकलाप ग्रन्थ के पृ. ८९ पर पाक्षिक प्रतिक्रमण का दंडक दिया है जिसमें बिना विभक्ति वाला पाठ ही छपा है जो कि बहुत प्राचीन माना जाता है। इसी क्रियाकलाप में सामायिक दण्डक की टीका में श्री प्रभाचंद्राचार्य ने बिना विभक्ति का ही पाठ लिखा है। जैसे- चत्तारिमंगलं- अरहन्त मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा - अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुना। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि- अरहंतसरणं पव्वजामि, सिद्धसरणं पव्वजामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मोसरणं अर्थ-चार ही मंगल हैं- अहरंत मंगल है, सिद्ध मंगल हैं, साधु मंगल हैं और केवली भगवान के द्वारा कथित धर्म मंगल है। चार ही लोक में उत्तम हैं - अरहंत लोक में उत्तम हैं, सिद्ध लोक में उत्तम है,साधु लोक में उत्तम है और केवली प्रणीत धर्म लोक में उत्तम है। चार की ही मैं शरण लेता हूं- अरहंत की शरण लेता हूं, सिद्ध की शरण लेता हूं साधु की शरण लेता हूं और मैं केवली भगवान के द्वारा प्रणीत धर्म की शरण लेता हूं। इससे यह स्पष्ट होता है कि ग्रंथ के टीकाकार को भी बिना विभक्ति वाला प्राचीन पाठ ही ठीक लगा था। इसी प्रकार ज्ञानार्णव, प्रतिष्ठातिलक, प्रतिष्ठासारोद्धार आदि ग्रंथों में भी बिना विभक्ति के ही पाठ देखे जाते हैं। चन्दना-माताजी। पहले एक बार आपने मुझसे (ब्रह्मचारिणी अवस्था में) चत्तारिमंगलं विषयक कुछ पत्राचार भी कराये थे। उसमें विद्वानों के क्या अभिमत आए थे? श्री ज्ञानमती माताजी- हाँ, सन् 1983 में तुम्हारे द्वारा किये गये पत्राचार के उत्तर में विद्वानों के उत्तर आये थे जिन्हें मैंने "मेरी स्मृतियाँ" में दिया भी है। पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने लिखा था कि 'श्वेताम्बरों के यहाँ विभक्ति सहित पाठ प्रचलित है उसमें व्याकरण की दृष्टि से कोई अशुद्धि नहीं है अतः उसे दिगंबर जैनियों ने भी अपना लिया है। . ब्र० सूरजमल जी प्रतिष्ठाचार्य एवं पं० शिखरचन्द प्रतिष्ठाचार्य ने भी बिना विभक्ति वाले प्राचीन पाठ को ही मान्यता दी है। श्री पं० मोतीचंद जी कोठारी फल्टण वालों से एक बार दरियागंज दिल्ली में मेरी चर्चा हुई थी, उन्होंने प्राचीन विभक्ति रहित पाठ को प्रामाणिक कहा था। पं० सुमेरचन्द दिवाकर सिवनी वालों से दिल्ली में सन् 1974 में इस विषय पर वार्ता हुई थी तब उन्होंने भी प्राचीन पाठ को ही मान्यता दी थी। चन्दना-माताजी। यदि व्याकरण से विभक्ति सहित पाठ शुद्ध है तो उसे पढ़ने में क्या बाधा है? श्रीज्ञानमती माताजी- बात यह है कि मन्त्र शास्त्र का व्याकरण अलग हो होता है, आज उसको जानने वाले विद्वान् नहीं हैं। अतः मेरी मान्यता तो यही है कि प्राचीन पाठ में अपनी बुद्धि से परिवर्तन, परिवर्द्धन नहीं करना चाहिए। सन् 1985 में ब्यावर चातुर्मास में मैंने पं० पन्नालाल जी सोनी से इस विषय में चर्चा की थी, तब उन्होंने कहा था कि हमारे यहां सरस्वती भवन में बहुत प्राचीन यन्त्रों में भी बिना विभक्ति वाला प्राचीन पाठ ही है, हस्तलिखित प्रतियों में भी वही पाठ मिलता है।' विभक्ति सहित चत्तारिमंगलं का पाठ शास्त्रों में देखने को नहीं आया है अतः प्राचीन पाठ ही पढ़ना चाहिये। आजकल के विद्वानों द्वारा संशोधित पाठ नहीं अपनाना चाहिए। उन्होंने भी इस बात पर जोर दिया था कि मन्त्रों का व्याकरण अलग ही होता है, आज हम लोगों को उसका ज्ञान नहीं है। अतः मूलमंत्रों में अपने मन से विभक्तियाँ नहीं लगानी चाहिए। एक पत्र सन् 1983 में क्षुल्लक श्री सिद्धसागर जी का मौजमाबाद से प्राप्त हुआ था, उससे मुझे बहुत सन्तोष हुआ था। उन्होंने लिखा था "अ आ इ उ ए तथा ओ' को व्याकरण सूत्र के अनुसार समान भी माना जाता है। “एदे छ च समाणा" इस प्राकृत सूत्र के अनुसार अरहंता मंगलं के स्थान पर अरहंत मंगलं, सिद्धा मंगलं के स्थान पर सिद्ध मंगलं तथा साहू मंगलं के स्थान में साहू मंगलं और केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं है। "आ" तथा "अ" को समान मानकर अरहंत के "आ" के स्थान में "अ" पाठ रखा गया है यह व्याकरण से शुद्ध है। इसी प्रकार "अरहंत लोगुत्तमा" इत्यादि पाठ भी शुद्ध हैं। "अरहन्ते सरणं पव्वज्जामि" के स्थान पर "अरहंत सरणं पव्वजमि" पाठ शुद्ध है क्योंकि "एदे छ च समाणा" इस व्याकरण सूत्र के अनुसार "ए" तथा "अ" को समान मानकर "ए" के स्थान में "अ" पाठ शुद्ध है। षट् खण्डागम ग्रंथ की प्रथम पुस्तक में चौथा सूत्र है"गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमें दंसणे लेस्सा भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि "४" इसमें लेस्सा से आहार ए तक विभक्ति नहीं है। इस विषय में टीकाकार आचार्यदेव श्रीवीरसेन ने कहा हैसूत्रोक्त जिन पदों में विभक्ति नहीं पाई जाती है वहां भी- "आइमझंतवण्णसरलोवो।" अर्थात् आदि मध्य और अंत के वर्ण और स्वर का लोप हो जाता है। इस प्राकृत व्याकरण के सूत्र के नियमानुसार विभक्ति का लोप हो गया है फिर भी उसका अस्तित्व समझ लेना चाहिये। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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