Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 776
________________ ७०८] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला वाग्देवतां ज्ञातृकथोपासकाध्ययनस्तनीम्। अंतकृद्दशसत्राभिमनुत्तरदशांगतः (३) सुनितंबां सुजघनां प्रश्नव्याकरणश्रुतात्। विपाकसूत्रदृग्वादचरणां चरणांबराम् (४) सम्यक्त्वतिलकां पूर्वचतुर्दशविभूषणाम्। तावत्प्रकीर्णकोदीर्ण- चारूपत्रांकुरश्रियम् (५) आप्तदृष्टप्रवाहौघद्रव्यभावाधिदेवताम्। परब्रह्मपथादृप्तां स्यादुक्तिं भुक्तिमुक्तिदाम् (६) निर्मूलमोहतिमिरक्षपणैकदक्षं, न्यक्षेण सर्वजगदुजवलनैकतानम्। सोषेस्व चिन्मयमहो जिनवाणि नूनं, प्राचीमतो जयसि देवी तदल्पसूतिम्॥ आभवादपि दुरासदमेव, श्रायसं सुखमनन्तमचिंत्यम्। जायतेद्य सुलभं खलु पुंसां, त्वत्प्रसादत इहांब नमस्ते ।। चेतश्चमत्कारकरा जनानां, महोदयाश्चाभ्युदयाः समस्ताः । हस्ते कृताः शस्तजनैः प्रसादात्, तवैव लोकांब नमोस्तु तुभ्यम्। सकलयुवतिसृष्टेरंब! चूड़ामणिस्त्वं, त्वमसि गुणसुपुष्टेधर्मसृष्टेश्च मूलम्। त्वमसि च जिनवाणि! वेष्टमुक्त्यंगमुख्या, तदिह तव पदाब्ज भूरि भक्त्या नमामः ॥ सरस्वती स्तोत्र (द्वादशांग जिनवाणी स्तुति) अर्थः- श्रुतदेवी के बारह अंग हैं, सम्यग्दर्शन यह तिलक है, चारित्र उनका वस्त्र है, चौदह पूर्व उनके आभरण हैं ऐसी कल्पना करके श्रुतदेवी की स्थापना करनी चाहिए। बारह अंगों में से प्रथम जो (आचाराँग" है, वह श्रुतदेवी-सरस्वती देवी का मस्तक है, "सूत्रकृतांग" मुख है, “स्थानांग" कंठ है, “समवायांग" और "व्याख्याप्रज्ञप्ति" ये दोनों अंग उनकी दोनों भुजायें हैं, ज्ञातकथांग" और "उपासकाध्ययनांग" ये दोनों अंग उस सरस्वती देवी के दो स्तर है, "अंतकृद्दशांग" यह नाभि है, "अनुत्तरदशांग" श्रुतदेवी का नितंब है, "प्रश्नव्याकरणांग" यह जघनभाग है, "विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग" ये दोनों अंग उन सरस्वती के दोनों पैर हैं। “सम्यक्त्व" यह उनका तिलक है चौदहपूर्व ये अलंकार हैं और "प्रकीर्णक श्रुत" सुन्दर बेल सदृश हैं। ऐसी कल्पना करके यहां पर द्वादशांग जिनवाणी को सरस्वती देवी के रूप में लिया गया है। श्री जिनेन्द्रदेव ने सर्वपदार्थों की संपूर्ण पर्यायों को देख लिया है, उन सर्व द्रव्य पर्यायों की यह "श्रुतदेवता" अधिष्ठात्री देवी हैं अर्थात् इनके आश्रय से पदार्थों की सर्व-अवस्थाओं का ज्ञान होता है। परम ब्रह्म के मार्ग का अवलोकन करने वाले लोगों के लिये यह स्याद्वाद के रहस्य को बतलाने वाली है तथा भव्यों के लिये भक्ति और मुक्ति को देने वाली ऐसी यह सरस्वती माता है। जो चिन्मय ज्योति संपूर्ण मोहरूपी अन्धकार को नष्ट करने वाली है और सर्वजगत् को प्रकाशित करने वाली है। हे जिनवाणि मातः! हे सरस्वति देवि! ऐसी चिन्मय ज्योति को आप उत्पन्न करने वाली हो इसलिये आपने अल्प प्रकाश धारक सूर्य को जन्म देने वाली ऐसी पूर्व दिशा को जीत लिया है। अनादि काल से संसार में दुर्लभ ऐसा अचिन्त्य और अनंत मोक्ष सुख है, आपके प्रसाद से वह मनुष्यों को प्राप्त हो जाता है इसलिये हे मातः! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। नातः! अन्तरंग को आश्चर्यचकित करने वाले जो स्वर्गादि के जो समस्त अभ्युदयऐश्वर्य हैं वे सब आपके प्रसाद से लोगों को प्राप्त हो जाते हैं इसलिये मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे अम्ब! आप सम्पूर्ण स्त्रियों की सृष्टि में चूड़ामणि हो। आपसे ही धर्म की और गुणों की उत्पत्ति होती है। आप मुक्ति के लिये प्रमुख कारण हो, इसलिये मैं अतीव भक्तिपूर्वक आपके चरण कमलों में नमस्कार करता हूँ। चन्दना- आज आपसे कई आगम के विषय ज्ञात हुए हैं। अब लेखनी को विराम देती हुई आपके श्रीचरणों में वंदामि करती हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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