Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 759
________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ संघस्थ साधुवर्ग एवं सम्पादक मण्डल का पूज्य माताजी से एक साक्षात्कार दिनाँक १२ मई १९९२ समस्त संपादकश्री ज्ञानमती माताजी- डा० श्रेयांसमाताजीडॉ. श्रेयांसमाताजी डा० कस्तूरचंद जीमाताजी डा. कस्तूरचंद जीमाताजी प्रस्तुति-डा० श्रेयांस जैन, बड़ौत वंदामि, माताजी! सद्धर्मवृद्धिरस्तु! पूज्य माताजी! साहित्य रचना के क्रम में आपकी प्रथमकृति कौन सी है। मेरी प्रथम कृति जिनसहस्रनाममंत्र है। इसे आपने कब और कहाँ रचा? सन् १९५५ में मैंने दक्षिण में म्हसवड़ ग्राम (महाराष्ट्र) में चातुर्मास किया था। साथ में क्षु. विशालमती माताजी थीं। उस समय मैं भी क्षुल्लिका वीरमती थी। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज ने यमसल्लेखना लेने के लिये निश्चय करके कुंथलगिरि क्षेत्र पर चातुर्मास किया हुआ था। हम दोनों क्षल्लिकाओं ने भी उनकी सल्लेखना को देखने के लिये ही क्षेत्र के निकट लगभग 40 किलोमीटर दूर ग्राम में चातुर्मास किया था। मैं श्री जिनसेनाचार्य प्रणीत जिनसहस्रनाम का नित्य हीपाठ किया करती थी। वहां कई बालिकाओं को कातंत्र व्याकरण भी पढ़ाया करती थी। एक दिन मंदिर में भगवान् के सामने बैठे हुये मन में सहसा यह भाव आया कि “मैं इस जिनसहस्रनाम स्तोत्र से श्रीजिनेंद्रदेव के एक हजार आठ मंत्र बनाऊं।" तभी मैंने जीवन में सर्वप्रथम यह मंत्र रचना प्रारंभ कर दी। वह हस्तलिखित मेरी कॉपी आज भी यहां सुरक्षित विद्यमान है। सहस्रनाम स्तोत्र में तो भगवान के १००८ नामों द्वारा भगवान् की स्तुति की गई है। हां, उन्हीं १००८ नामों में से प्रत्येक नाम में मैंने चतुर्थी विभक्ति लगाकर नमः शब्द जोड़ दिया है। जैसे-"श्रीमान् स्वयंभूवृषभः" इनको "ऊँ ह्रीं श्रीमते नमः" ॐ ह्रीं स्वयंभूवेः, ॐ ह्रीं वृषभाय नमः । इत्यादि । इसका मतलब उन दिनों छोटी उम्र में भी आपका व्याकरण ज्ञान बहुत अच्छा था। हां, ठीक था। केवल दो माह में मैंने सन् १९५४ में कातंत्र व्याकरण पढ़ी थी, उसी व्याकरण ज्ञान के सदुपयोग की भावना से ही मैंने ये मंत्र बनाये थे। इसका प्रकाशन कब हुआ था? वहीं क्षु. श्रीविशालमती माताजी ने उन मंत्रों की पुस्तक को "जिनसहस्रनाम मंत्र" नाम से छपवा दिया था। उसकी दो तीन प्रतियां यहां जबूद्वीप पुस्तकालय में आज भी विद्यमान हैं। अभी उसका द्वितीय संस्करण भी छपाया गया है। आपने सबसे पहले जिनेंद्रदेव के १००८ नाम मंत्र लिखे हैं इसीलिये आपकी लेखनी से लिखित ग्रंथ अत्यधिक लोकप्रिय हो रहे हैं। मुझे जिनेंद्रदेव के नाम मंत्र और उनकी स्तुति आदि में बहुत श्रद्धान है। मैं स्वयं यह समझती हूँ कि उन मंत्रों को प्रथम बनाने से ही मुझे सरस्वती माता का विशेष कृपा प्रसाद मिला है। माताजी! आपने काव्यसृजन जिस भाषा में और कब प्रारंभ किया? मैंने सन् १९५९ के अजमेर चातुर्मास में अपने दीक्षागुरु आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की स्तुति संस्कृत भाषा में बनाई थी। यह "उपजाति छंद' में है। उसका प्रथम श्लोक क्या है? स्वात्मैकनिष्ठं नृसुरादिपूज्यं । षड्जीवकायेषु दयाचित्तं ॥ श्री वीरसिंधुं भववार्धिपोत-माचार्यवयं त्रिविधं नमामि ॥ काव्य रचना में किस कारण की प्रधानता आपके जीवन में रही? जिनेंद्रदेव की भक्ति और गुरुभक्ति के साथ अपनी व्याकरण तथा छन्द विद्या के उपयोग की प्रवृत्ति ही प्रधान कारण है। मैंने तो एक बार यही सुना था कि आपने श्रवणबेलगोल में भगवान् बाहुबली की संस्कृत स्तुति बनाकर ही लेखनी को प्रारम्भ किया है, किंतु आपने तो उसके पूर्व उपर्युक्त दो रचनायें बनाई हैं। डा० शेखर जैनमाताजी चन्दनामती माताजी डा. शेखर जैनमाताजी डा. शेखर जैनमाताजी चन्दनामतीमाताजीडा. अनुपम Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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