Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 768
________________ ७००] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला डा. कस्तूरचंदमाताजी क्षु. मोतीसागरमाताजी व्र. रवीन्द्रमाताजीडा. कस्तूरचंद माताजी पूज्य माताजी! आपने इस ग्रंथ में किस-किस विषय में विशेषार्थ दिये हैं? गाथा २७३ में दिक् शुद्धि का विधान है। यथा-पूर्वाह्न, अपराह्न और प्रदोषकाल-पूर्वरात्रिक काल के स्वाध्याय करने में दिशा विभाग की शुद्धि के लिए नव, सात और पाँच गाथा प्रमाण णमोकार मंत्र जपें। इसके विशेषार्थ में मैंने धवला की नवमी पुस्तक के भी उद्धरण देकर अच्छा खुलासा कर दिया है। जैसे "पच्छिमरत्तियसज्झायं खमाविय बहिं णिक्कलिय पासुवे भूमिपदेसे ....।" अर्थात् साधु पिछली रात्रि के स्वाध्याय को समापन करके वसतिका से बाहर निकलकर प्रासुक भूमि प्रदेश में कायोत्सर्गमुद्रा से पूर्वदिशा की तरफ मुँह करके खड़े होकर नवबार णमोकार मंत्र को सत्ताईस उच्छ्वास में पढ़कर पूर्वदिशा की शुद्धि करके दक्षिण दिशा में घूम जावें, ऐसे कायोत्सर्ग मुद्रा से २७ उच्छ्वास में नवबार णमोकार मंत्र जपें । ऐसे पश्चिम और उत्तर दिशा की दिक्शुद्धि करें। यह दिक्शुद्धि पूर्वाह्न के स्वाध्याय के लिए होती है। इस दिक्शुद्धि के बाद साधु रात्रिक प्रतिक्रमण करके पूर्वाह्न कालीन देववंदना अर्थात् सामायिक करते हैं। पुनः पूर्वाह्न स्वाध्याय करते हैं। ऐसे ही पूर्वाह्न स्वाध्याय के बाद अपराह्न स्वाध्याय के लिए दिक्शुद्धि की जाती है। यह दिक्शुद्धि किन-किन ग्रंथों के लिए है? यह सिद्धांत ग्रंथों के स्वाध्याय के लिए है। आज वर्तमान काल में श्रुतकेवली, अंग-पूर्वधारी आदि मुनियों द्वारा विरचित ग्रंथ तो हैं नहीं, पुनः सिद्धांत ग्रंथ कौन-कौन से माने जाते हैं? चा.च.आ. श्री शांतिसागर जी महाराज ने षट्खंडागम, कसायपाहुड और महाबंध इन तीन ग्रंथों को सिद्धांत ग्रंथ कहा था और सिद्धांतग्रंथों के लिए कालशुद्धि आदि का नियम इन्हीं में लगाने का आदेश दिया था। जैसे कि अष्टमी, चतुर्दशी को भी स्वाध्याय नहीं करना आदि। माताजी, षट्खंडागम ग्रंथ तो धवला टीका सहित सोलह पुस्तकों में छपा है? हां, ऐसे ही कसायपाहुड ग्रंथ भी जयधवला टीका समेत सोलह पुस्तकों में छप चुका है। क्या समयसार आदि ग्रंथ सिद्धांत ग्रंथ नहीं है? हैं, ऐसे तो तत्त्वार्थवार्तिक गोम्मटसार आदि ग्रंथ भी सिद्धांत ग्रंथ से संबंधित हैं। फिर भी सिद्धांत ग्रंथ के स्वाध्याय के लिए जितनी द्रव्य क्षेत्र काल भाव शुद्धि वर्णित है, उतनी उन्हीं उपर्युक्त ग्रंथों के लिए आचार्यश्री की आज्ञा से चली आ रही है। अन्य समयसार आदि ग्रंथों को भी सामायिक काल-तीनों संध्या काल को छोड़कर ही पढ़ना चाहिए। क्या सभी बड़े संघों में यह दिक्शुद्धि की जाती है? प्रायः परंपरा नहीं है, कोई साधु करते हों तो पता नहीं। मैंने "मुनिचर्या' पुस्तक जो अभी मुनि-आर्यिकाओं के लिए नित्यक्रिया-नैमित्तिक क्रियाओं की संकलित की है, उसमें इस दिक् प्रकरण को सप्रमाण दे दिया है। यह तो एक विशेषार्थ का मैंने नमूना दिया है, ऐसे अनेक भावार्थ-विशेषार्थ हैं। कृतिकर्म विधि क्या है? साधु के अहोरात्र के २८ कायोत्सर्ग या कृतिकर्म माने हैं। उनमें प्रत्येक भक्ति के पढ़ने में जो विधि की जाती है, वही कृतिकर्म है। इसमें दो नमस्कार, चार शिरोनति और बारह आवर्त होते हैं। मैंने गाथा ६०३ के विशेषार्थ में इसे अच्छी तरह स्पष्ट किया है। ऐसे ही गाथा ६९० में आये हुए आसिका और निषिद्यका को भी विशेषार्थ में आचारसार और अनगार धर्मामृत के उद्धरण देकर खुलासा कर दिया है। ऐसे ही गाथा २०५ में विशेषार्थ में पृथ्वी के चार भेदों में पृथ्वीकाय को निर्जीव सिद्ध किया है। और कोई महत्त्वपूर्ण प्रकरण बताइये? धवला पुस्तक १३ (पृ. ७४-७५) में जब यह प्रकरण आया कि धर्मध्यान दशवें गुणस्थान तक है और शुक्लध्यान ग्यारहवें गुणस्थान से होते हैं, तब साधुओं और विद्वानों को एक नई बात जैसी लगती है, किन्तु इस मूलाचार में भी यही विषय है। गाथा ४०४ और ४०५ में कहा है-उपशांतकषाय मुनि पृथक्त्व विर्तक वीचार शुक्लध्यान को, क्षीणकषायमुनि एकत्व वितर्क अवीचार को, सयोगीजिन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान को एवं अयोगी जिन भगवान समुच्छिन्न-व्युपरतक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान चन्दनामतीमाताजीडा. शेखरमाताजी क्षु, मोतीसागरमाताजी ब्र. रवीन्द्रमाताजी डा. श्रेयांसमाताजी १. मूलाचार गा. १८७ । पद्मपुराण पर्व २७ । ३. मूलाचार गा. २७३, पृ. २२८ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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