Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 766
________________ ६९८] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला डा. शेखरचंदमाताजी डा. श्रेयांस जीमाताजी डा. अनुपममाताजी डा. श्रेयांसक्षुल्लक मोतीसागर ब्र. रवीन्द्र सामायिक के बाद मुझे वमन हो गया। रत्नमती माताजी ने उठकर मुझे संभाला और अगले दिन जब मैं लिख रही थी, तब वे समझाने लगीं. "ताजी! शरीर को संभालकर ही काम करना चाहिए, अभी तुम्हें बहुत काम करना है। शरीर से इतनी जबरदस्ती करोगा ता कैसे काम चलेगा इत्यादि।" उनकी प्रेरणा रहती थी कि तुम बैठकर लिखती हो तो पीठ में, गर्दन में, कमर में दर्द हो जाता है, कभी-कभी तेल की मालिश करा लिया करो। किंतु उस समय मैं उनकी नहीं सुनती थी। का पहले भी कभी आपको ऐसा सिर दर्द होकर वमन होना आदि कष्ट होता था? हां, सन् ७७-७८ से ऐसा कई बार होता था कि जब मैं लेखन या अध्यापन या उपदेश आदि में अधिक श्रम कर लेती थी तो ऐसे ही भयंकर सिर दर्द हो जाता था और कभी-कभी वमन भी हो जाता था। अब भी कभी आपको ऐसा होता है क्या? हां, अधिक बोलना या अधिक लेखन कर लेने से ऐसी घबराहट और सिर दर्द हो जाती है कि दो-तीन दिन सब काम बंद करना पड़ता है। पं. फूलचंद जी सिद्धांत शास्त्री ने आपको नियमसार प्राभृत का स्वाध्याय सुनाया था। उस समय उनका क्या उद्देश्य था? मुझे जब सन् १९८५ में मियादी बुखार हुआ था, उसके बाद लीवर कमजोर होकर पीलिया हो गया था। उन दिनों मैं उठने, चलने में असमर्थ हो गई थी। उन दिनों बड़े मंदिर से पं. फूलचंद जी शास्त्री आते रहते थे, वे कहते थे"माताजी! मैं आपको कुछ स्वाध्याय सुनाना चाहता हूँ।" एक दिन यह निर्णय हुआ कि नियमसार प्राभृत सुनाया जाये। वे केवल धर्मवात्सल्य की भावना से ही माघ, पौष की ठंड में बड़े मंदिर से यहाँ आकर बड़े प्रेम से मुझे इस ग्रंथ को पढ़कर अर्थ करके सुनाते रहते थे। ब्र. मोतीचंद और रवीन्द्र भी उसमें बैठते थे। साढ़े पांच महीने में उन्होंने मुझे यह पूरा ग्रंथ सुनाया है। इस ग्रंथ का अर्थ करते समय वे कैसे भाव व्यक्त करते थे? पंडित जी कभी-कभी इतने गद्गद् हो जाते थे कि माताजी के ज्ञान की प्रशंसा करते नहीं थकते थे। वे कहते-माताजी! आपने अनेक ग्रंथों से ये कैसे-कैसे अनमोल वाक्यरत्न इकट्ठे किये हैं और उन्हें यथोचित स्थलों पर रखे हैं। . पंडित जी ने एक दिन कहा-पूरा का पूरा ग्रंथ आगम के अनुकूल है। हाँ, शुद्ध आत्मानुभूति के बारे में दो धारायें हैं। माताजी ने एक धारा का आश्रय लिया है। उस समय मैंने पंडित जी से कहा-एक धारा के तो उद्धरण मैंने अनेक शास्त्रों में से लेकर दे दिये हैं। दूसरी धारा के शास्त्रों के नाम आप बता दीजिए? तब उन्होंने अनगार धर्मामृत का एक प्रकरण बताया। मैंने निकालकर देखा और उन्हें भी दिखाया, वह प्रकरण तो हमारे ही अनुकूल था। वह क्या है? सरागी ज्ञानी जीव का सम्यग्दर्शन सराग है, वह असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर सूक्ष्म सांपराय नामक दशवें गुणस्थान तक होता है और वीतरागी मुनि के-अर्थात् उपशांत मोह और क्षीणमोह मुनि के वीतराग सम्यग्दर्शन होता है, यह आत्मा की विशुद्धिमात्र है। (अनगारधर्मा. अ. २ श्लोक ५१-५२-५३) बात यह है कि आज कल कुछ विद्वान् चौथे गुणस्थान में ही आत्मा की अनुभूति रूप वीतराग या निश्चय सम्यग्दर्शन मान लेते हैं। तब पंडित जी क्या बोले? पंडित जी मौन रहे। आपने भगवान् शांतिनाथ को तीनलोक के चक्रवर्ती कहा है? इसमें क्या बाधा है। तीर्थकर भगवान् तीनलोक के चक्रवर्ती हैं ही। श्लोक ऐसा है "त्रैलोक्यचक्रवर्तिन् हे शांतीश्वर! नमोऽस्तु ते। त्वन्नामस्मृतिमात्रण, शांतिर्भवति मानसे ॥ पूज्य माताजी! आज हम लोगों ने आपका बहुत सा समय लिया है। इसमें हमने बहुत से महत्त्वपूर्ण विषय इस महान् आपकी प्रिय रचना टीका ग्रंथ के बारे में समझा है । सो बहुत प्रसन्नता है। अच्छा है, श्रावकवर्ग, विद्वद्वर्ग और शिष्यवर्ग जितना भी मेरे से लाभ ले लें अच्छी बात है। वंदामि, माताजी! सद्धर्मवृद्धिरस्तु। माताजी डा. श्रेयांसमाताजी डा. श्रेयांसमाताजीडा. श्रेयांसमाताजी संपादकगण माताजीसंपादकगणमाताजी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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