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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ
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नहीं हो तो श्रद्धान ही करे। श्रीपद्मप्रभमलधारी मुनि ने अपनी टीका में स्पष्ट कहा है कि आज अध्यात्म ध्यान नहीं है अतः श्रद्धान ही करना चाहिए। उसे ही देखो
असारे संसारे कलि विलसिते पापबहुले। न मुक्तिर्मार्गेऽस्मिन्ननघजिननाथस्य भवति ॥ अतोऽध्यात्मध्यानं कथमिह भवेनिर्मलधियां ।
निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम्॥ अभिप्राय यही है कि आज दुःषमकाल में मुनियों को भी अध्यात्मध्यान संभव नहीं है उन्हें अपनी आत्मा का श्रद्धान ही करना
चाहिए। बात यह है कि "शुद्धोऽहं बुद्धोऽहं" ऐसी भावना शब्दरूप है वह निर्विकल्प ध्यान नहीं है ऐसा निश्चित है। क्षु० मोतीसागर - आपने इस ग्रंथ की टीका में मध्य में भी अपने दीक्षागुरु का नाम दे दिया है। यह भविष्य में प्रमाणिकता से लिये अच्छा है
क्योंकि "ज्ञानमती" इस नाम साम्य से आज ही शंका का विषय हो रहा है। बहुत से लोग कह देते हैं"- माताजी! मैंने
अभी एक माह पूर्व आपको सोनागिरि में देखा है, कोई कह देते हैं मैंने अभी कल ही सुना था आप दिल्ली में हैं इत्यादि। माताजी
हां, आज कई ज्ञानमती नाम से आर्यिकायें हैं, क्षुल्लिकायें भी हैं। उनसे आज प्रत्यक्ष में मेरे रहते हुये भी लोग भ्रमित हो रहे हैं। अस्तु, मैंने परमसमाधि" नामक नवमें अधिकार को पूर्ण करते हुये "गुरूणां गुरु" ऐसे चारित्रचक्रवर्ती शांतिसागरजी महाराज को नमस्कार किया है। आगे ग्यारहवें अधिकार को पूर्ण करते हुये चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री के प्रथम पट्टाधीश
आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज जो कि मेरे आर्यिका दीक्षा गुरु हैं उन्हें नमस्कार किया है। डा. कस्तूरचंद जी- आपने अपने द्वारा रचित इस टीका का “स्याद्वादचंद्रिका" नाम दिया है। इसमें आपका क्या अभिप्राय रहा है? माताजी
इस टीका में हर गाथा में निश्चय व्यवहार का समन्वय किया गया है, अतः स्याद्वाद यह नाम सार्थ है। पुनः मैंने अंत में पृ. ५५३ पर इसको स्पष्ट किया है। "यह नियमरूपी कुमुदों को विकसित करने के लिए चंद्रमा का उदय है। . . . इसकी टीका चंद्रमा के उदय की चांदनी के
समान शोभित हो रही है, इसलिए इसका "स्याद्वादचन्द्रिका" यह सार्थक नाम है। डा. शेखरचंद
इस ग्रंथ की प्रशस्ति में आपने बहुत ही सुंदर गुर्वावली देकर टीका लिखने का अभिप्राय भी व्यक्त किया है। माताजी
हां, मैंने लिखा है"घर में आठ वर्ष की उम्र से लेकर अठारह वर्ष की उम्र तक और दीक्षित जीवन में बत्तीस वर्ष तक जो भी मैंने ज्ञानाराधना से अमृत प्राप्त किया है, उस सबको इसमें एकत्र करके रख दिया है। मैंने अपने आत्मा की
"तुष्टयै पुष्ट्रयै मनः शुद्ध्यै, शान्त्यै सिद्ध्यै च स्वात्मनः ।। तुष्टि, पुष्टि, मन की शुद्धि, शांति और सिद्धि के लिए यह टीका रची है। डा. श्रेयांस जैन- आपने इसमें तत्कालीन शासकों के नाम दे दिये हैं। माताजी
हां, इससे समय की प्रमाणिकता बनी रहेगी। इसी भावना से मैंने "राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह" और "प्रधानमंत्री राजीव गाँधी" का नाम रख दिया है। दूसरी बात यह भी रही थी कि उन दिनों "जंबूद्वीप ज्ञानज्योति" का प्रवर्तन चल रहा था। यह ज्योति प्रवर्तन श्रीमती “प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी" के करकमलों से हुआ था। उसी वर्ष दिल्ली में जंबूद्वीप सेमिनार का उद्घाटन
"राजीव गांधी" द्वारा हुआ था। इन्हीं निमित्तों से मैंने प्रशस्ति में यह प्रकरण और इन भारत देश के शासकों के नाम दे दिये हैं। डा. अनुपम
आपने प्रशस्ति में लिखा है कि आर्यिका श्री रत्नमती जी माताजी मेरे पास बैठी हुई हैं। माताजी को आपके लेखन आदि कार्य
बहुत अच्छे लगते होंगे? माताजी
हाँ, मैं ग्रंथों का लेखन किया करती थी, वे बहुत ही प्रसन्न होती थीं। पुत्री के अच्छे-अच्छे कार्यकलापों को देखकर माता-पिता को कितनी खुशी होती है, यह तो आप सभी जानते हैं और फिर जब वे स्वयं धर्ममूर्ति हों तो पुनः संतान के धर्मकार्यों की उन्नति को देख-देखकर उनकी प्रसन्नता को भला कौन माप सकता है? .... हां, सन् १९८४ में दीपावली से पहले रवींद्र, मोतीचंद, माधुरी ये सभी ज्ञानज्योति प्रवर्तन में आसाम गये हुए थे। उन दिनों मैं इस टीका को लिखने में बहुत ही व्यस्त
थी। एक दिन जरूरत से अधिक लेखन कर लिया। सायंकाल से सिर में बहुत दर्द हो गया। इससे बेचैनी बढ़ गई। रात्रि १- नियमसार प्राभृत, पृ. ४०८, २- नियमसार प्रा.पृ. ५७ से ५८, ३- नियमसार प्रा.पृ. ३८४,४- नियमसार प्रा.पृ. ४५९.
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