Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 764
________________ ६९६] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला क्षुल्लक मोतीसागरमाताजी क्षुल्लक मोतीसागरमाताजी ननु संति जीवलोके, काश्चिच्छमशीलसंयमोपेताः । निजवंशतिलकभूताः, श्रुतसत्यसमन्विता नार्यः ((५७)) सतीत्वेन महत्त्वेन, वृत्तेन विनयेन च। विवेकेन स्त्रियः काश्चित्, भूषयंति धरातलम् ((५८)) इन श्लोकों से बहुत ही स्पष्ट है कि महिलायें सर्वथा निंद्य नहीं है। आर्यिकायें और तीर्थंकर की मातायें आदि इंद्रों से भी वंद्य है! पूज्य हैं। श्रीरामचंद्र ने भी श्री वरधर्मा गणिनी आर्यिका की पूजा की थी और सीता ने जब आर्यिका दीक्षा ले ली तब उन्हें "भगवती" कहकर नमस्कार किया था। आर्यिकायें अध्यात्म ग्रंथ एवं सिद्धांत ग्रंथ आदि का पठन-पाठन आदि कर सकती हैं क्या? कुछ साधुवर्ग तो विरोध करते हैं? गाथा १८७ की टीका में इस विषय पर मैंने प्रकाश डाला है। यद्यपि आर्यिकाओं के पंचम गुणस्थान ही है फिर भी वे एक कौपीन मात्रधारी ऐसे ऐलक से भी पूज्य हैं। उपचार महाव्रती हैं, संयतिका आदि शब्दों के प्रयोग प्रथमानुयोग में इनके लिये आये हैं। मुनियों के समान ही इनके २८ मूलगुण हैं और ये ग्यारह अंग तक भी पढ़ने की अधिकारिणी हैं। इसमें मूलाचार की ३ गाथायें देकर उसकी टीका की पंक्ति भी दी है- "तत्सूत्रं पठितुमस्वाध्याये न कल्प्यते न युज्यते विरतवर्गस्य-संयतसमूहस्य स्त्रीवर्गस्य चार्यिकावर्गस्य च।" अर्थात् अस्वाध्याय काल-अकाल में संयमीमुनियों को और आर्यिकाओं को सूत्रग्रंथ पढ़ना उचित नहीं है। इसका अर्थ हो जाता है कि मुनि के समान आर्यिकाएं भी स्वाध्याय काल में सूत्रग्रंथों को पढ़ सकती हैं। हरिवंशपुराण में भी आया है"एकादशांगभृज्जाता सार्यिकापि सुलोचना।" सुलोचना आर्यिका ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया था। आपके अभिप्राय से श्रावक भी अध्यात्म ग्रंथ पढ़ सकते हैं क्या? गाथा १८७ की टीका में मैंने इस विषय को लिया है। कि "यदि इस ग्रंथ के पढ़ने वाले श्रोता या विद्वान, श्रावक और श्राविका भी अध्यात्म भावना को भाते हुये अपने पद के अनुकूल पूजा, दान, शील और उपवास को करते हुये-गृहस्थ के योग्य क्रियाओं को करते हुये जिनकल्पी मुनियों के आज नहीं मिलने पर स्थविरकल्पी मुनियों की भक्ति करते रहते हैं। दिगंबर मुनियों को देखकर अपमान नहीं करते हैं तो कोई दोष नहीं हैं। क्योंकि श्रावकों को भी इष्टवियोग आदि निमित्तों से जब मन में अशांति होती है तब अध्यात्म भावना से ही मन में शांति होती है इत्यादि। आपका कहना है कि इन अध्यात्म ग्रंथों में कहीं श्रावक शब्द का प्रयोग नहीं आया है सर्वत्र यति, मुनि, श्रमण आदि शब्दों के प्रयोग ही आये हैं? हां, समयसार में तो किसी भी गाथा में श्रावक शब्द नहीं है, किंतु मुनिवाचक शब्द तो बहुत गाथाओं में हैं। किंतु यहां नियमसार ग्रंथ में भक्ति अधिकार में एक गाथा में "श्रावक" शब्द का प्रयोग आया है इससे स्पष्ट है कि भक्ति में श्रावक को भी अधिकार है।" सम्मत्तणाणचरणे, जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो। तस्स दु णिव्वुदिभत्ती, होदित्ति जिणेहि णिद्दिटठं ((५३४)) जो श्रावक या मुनि सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र में भक्ति करते हैं उनके निर्वाण भक्ति होती है ऐसा जिनेंद्रदेव ने कहा है। आपने इस ग्रंथ में कहीं भूगोल का प्रकरण भी लिया है? हाँ, गाथा १४० की टीका में मैंने जंबूद्वीप के भरत ऐरावत क्षेत्र का एवं ढाई द्वीप में एक सौ सत्तर कर्मभूमियां हैं ऐसा उल्लेख किया है। गाथा १७ की टीका में भी आर्य और म्लेच्छ मनुष्यों का तथा भोग-भूमिज और कुभोगभूमिज मनुष्यों का वर्णन करते हुये ये सब भोग भूमि, कुभोगभूमि कहां है? संक्षिप्त खुलासा किया है। आज निर्विकल्प ध्यान होता है या नहीं? श्री कुंदकुंददेव ने गाथा १५४ में कहा है कि यदि शक्ति है तो प्रतिक्रमण आदि क्रियायें निर्विकल्प ध्यानरूप करे और शक्ति ब्र.रवीन्द्र जी माताजी डा. अनुपममाताजी ब्र० रवीन्द्र जीमाताजी १- ज्ञानार्णव, सर्ग १२, २- नियमसार प्राभृत, गा. १७५ पृ. ५०३-५०४. १- नियमसारप्राभृत, पृ. ५४४ से ५४६. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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