Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 769
________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ७०१ डा. अनुपममाताजी चंदनामती माताजी डा. शेखरमाताजी को ध्याते हैं। इसके विशेषार्थ में मैंने श्रीअमृतचंद्रसूरि के "तत्त्वार्थसार" के श्लोक भी दिये हैं। । “भगवती आराधना" एवं "उत्तरपुराण" ग्रंथ में भी यह प्रकरण है। आपने तो इस मूलाचार को श्रीकुंदकुंददेवकृत माना है। उसके बारे में कोई एक प्रकरण आप बतायेंगी क्या? हां, देखो भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्यपावं च। आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥ २०३ ॥ यही गाथा समयसार में नं. १३ पर है। इसमें नव तत्त्वों या पदार्थों के क्रम तत्त्वार्थसूत्र से भिन्न हैं-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षे। यही क्रम श्री गौतमस्वामी विरचित मुनियों के पाक्षिक प्रतिक्रमण में दिया है। यथा-"जीवाजीव उवलद्धपुण्णपाव आसवसंवरणिज्जर बंध मोक्खमहिकुसले।" इत्यादि। माताजी, आजकल तो इस प्रतिक्रमण में इस सूत्र दण्डक को ही बदल दिया है, उसमें तत्त्वार्थसूत्र के क्रम से "श्रमणचर्या" पुस्तक में ऐसा बदला है-"जीवाजीव उवलद्ध पुण्णपाव आसव बंधसंवरणिज्जरमोक्ख महिकुसले।" आप इस गाथा के क्रम को समयसार में नहीं बदल सकते हैं। वहाँ तो अधिकार भी इसी क्रम से लिये गये हैं। पहले जीवाजीव अधिकार पुनः पुण्यपाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इन अधिकारों को तो आप नहीं बदल सकते। समझ में नहीं आता कि यह ऐसा पाठ परिवर्तन आज क्यों किया जा रहा है? मुझे तो बहुत ही दुःख होता है। महान् गणधर श्रीगौतमस्वामी द्वारा रचित प्रतिक्रमण दण्डकों में यह परिवर्तन बहुत ही अतिसाहस का कार्य है। आप और भी देखें-उस पाक्षिक प्रतिक्रमण में बाह्य छह तपों में “कायक्लेश" तप को पांचवें नंबर पर और अभ्यंतर तपों में ध्यान तप को पांचवें नंबर पर लिया है। यही क्रम इस मूलाचार में लिया है। देखो गाथा ३४६ में कायक्लेश के बाद ही विविक्तशयनासन को लिया है। ऐसे ही गाथा नं. ३६० में ध्यान को पांचवें नंबर पर पुनः व्युत्सर्ग तप को लिया है। मुझे तो इन प्रकरणों से ऐसा लगता है कि श्री कुंदकुंददेव ने सभी विषयों में श्रीगौतमस्वामी और श्री भूतबलि, पुष्पदंत आचार्यों का अनुसरण किया है। इन्हीं सब आधारों से बारह भावना के क्रम आदि अनेक प्रकरणों से मैंने इस मूलाचार ग्रंथ को श्री कुंदकुंददेव की ही रचना मानी है। दूसरी बात यह है कि श्री मेघचन्द्राचार्य ने इसी मूलाचार ग्रंथ की कर्नाटक भाषा में टीका लिखी है, उसमें उन्होंने सर्वत्र इसे श्री कुंदकुंददेव कृत ही लिखा है। इन सब विषयों को मैंने मूलाचार की प्रस्तावना में स्पष्ट कर दिया है। इस ग्रंथ के अनुवाद के पश्चात् आपने कौन-कौन से ग्रंथ लिखे? एक "आर्यिका" पुस्तक लिखी, संस्कृत के श्लोकों में "आराधना" पुस्तक लिखी है और एक "दिगंबरमुनि" पुस्तक भी लिखी है। ऐसे तीन ग्रंथ लिखे हैं, इन तीनों का मूल आधार तो "मूलाचार" ही है। शेष आचारसार, धवला पुस्तक ९, अनगारधर्मामृत, भगवती आराधना, चारित्रसार आदि अनेक ग्रंथों के भी उद्धरण दिये हैं। ये तीनों पुस्तकें मुनि आर्यिकाओं के लिए विशेष पठनीय हैं। अनेक ग्रंथों का सार इनमें भरा हुआ है। माताजी! इस मूलाचार ग्रंथ का प्रकाशन "ज्ञानपीठ" से क्यों कराया गया? सन् १९७२ में जब अष्टसहस्री ग्रंथ का प्रथम भाग दिल्ली में छप रहा था, उसे देखकर पं. कैलाशचंद सिद्धांतशास्त्री ने कई बार यह कहा कि यह गौरवपूर्ण ग्रंथ हमारे ज्ञानपीठ को दे दीजिए। उस समय ब्र. मोतीचंद, रवीन्द्र कुमार आदि ने “वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला" स्थापित की थी और उसका प्रथम पुष्प बना रहे थे, अतः इस ग्रंथ को उन्हें नहीं दे सके थे। जब मूलाचार का अनुवाद पूर्ण हआ, तब पं. कैलाशचंद जी की भावना के अनुसार यह ग्रंथ ज्ञानपीठ से प्रकाशित कराने का निर्णय लिया गया। ऐसा सुना है कि डा. पन्नालाल जी साहित्याचार्य, पं. जगन्मोहन लाल जी शास्त्री, पं. कैलाशचंद जी शास्त्री इन तीन विद्वानों ने इसका संशोधन किया है? (हंसकर) संशोधन तो नहीं हां, वाचना अवश्य की थी। संशोधन इसलिए नहीं कह सकते कि इन विद्वानों ने इसके हिंदी अनुवाद में एक भी गलती नहीं निकाली। हां, इन विद्वानों ने कई एक स्थल पर विशेषार्थ लिखने के लिए सुझाव अवश्य दिये थे। मैंने उन सुझावों के अनुसार कुछ विशेषार्थ बढ़ाये भी थे। डा. अनुपममाताजी डा. कस्तूरचंदमाताजी डा. श्रेयांस माताजी १. मूलाचार गाथा ६०२-६०३, पृ. ४४२ से। २. मूलाचार गा. २०५, पृ. १७२ । ३. मूलाचार गाथा ४०४, पृ. ३१९ । ४. मूलाचार पृ. १६८ से। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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