Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 761
________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६९३ डा. शेखर जैनमाताजी क्षु. मोतीसागरमाताजी जैनेंद्र व्याकरण में भी सबसे पहला सूत्र है। "सिद्धिरनेकांतात्।" इसका अर्थ है अनेकांत से ही सिद्धि होती है।" यह अर्थ व्याकरण के शब्दों के लिये भी है और सर्वकार्य की सिद्धि और मोक्ष प्राप्ति के लिये भी घटित हो जाता है। इसमें भी “सिद्धि" शब्द का उच्चारण करने से सिद्धि पद को प्राप्त सिद्धों को नाम उच्चारणरूप से नमस्कार किया गया समझना चाहिये। इस व्याकरण में समास में एक नियम विशेष है। वह यह कि जैसे "वृक्ष" शब्द है उसमें एक वचन, द्विवचन, बहुवचन आदि रूप अनेकश: पंक्तियां विद्यमान हैं जैसे-जैसे प्रत्यय लगते हैं उसी के अनुसार उसका अर्थ अलग-अलग हो जाता है। वृक्ष जस् है वृक्षाः बनकर बहुत से वृक्ष तो क्या अनंत वृक्षों का वाचक बहुवचन हो गया है। पाणिनीय व्याकरण एकशेष समास है। वे कहते हैं वृक्षश्च वृक्षश्च वृक्षश्च इति वृक्षाः। किंतु जैन व्याकरणकार तो स्वभाव से ही प्रकृति में अनेक शक्तियां मानते हैं। श्री समंतमद्रस्वामी ने भी इसी प्रकरण को स्वयंभूस्तोत्र में लिया है- “अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं, वृक्षा इति प्रत्ययवत् प्रकृत्या'। ऐसे ही एक और महत्वपूर्ण सूत्र है जो कि सज्जाति को स्पष्ट कर रहा है"वर्णेनार्हद्पायोग्यानाम्" ((९७)) वर्ण से-जाति विशेष से जो अहंत रूप के-निग्रंथमुद्रा के अयोग्य हैं उनमें द्वंद्व समास में एकवचन हो जाता है। जैसे-"तक्षायस्कार" आदि । वर्णेन ऐसा क्यों कहा? तो जैसे "मूकवधिरौ" में द्विवचन हो गया। अहंदूपायोग्यानामिति किं? "ब्राह्मणक्षत्रियौ" अर्थात् ब्राह्मण और क्षत्रिय अहतरूप के योग्य हैं अतः उसमें द्विवचन होता है। आपने अपनी अधीत विद्याओं का सर्वश्रेष्ठ उपयोग क्या किया? भगवान् की स्तुति रचना ही पढ़ी हुई विद्याओं का सुफल है। मैंने सन् ६५ के चातुर्मास से सन् ७५ तक प्रत्येक चातुर्मास में भगवान् की एक-एक स्तुति अवश्य बनाई हैं। सन् ७५ में तो "कल्याणकल्पतरु" स्तोत्र नाम से संस्कृत में चौबीस तीर्थंकरों की चौबीस स्तुतियाँ बनाईं। इनमें छंदशास्त्र के अनुसार २१३ श्लोकों में १४४ छंदों का प्रयोग किया है। आपने कन्नड भाषा में भी तो पद्य रचना की है। श्रवणबेलगोल पहुंचने के मार्ग में ही मैंने “त्रिभाषा शिक्षक" पुस्तक के आधार से कनड़ भाषा का ज्ञान प्राप्त किया और संघस्थ साध्वियों को भी पढ़ाया । पुनः श्रवणबेलगोल में कन्नड़ भाषा में भगवान बाहुबली की स्तुति, आचार्य श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली की स्तुति और “द्वादश अनुप्रेक्षा" बनाई थी। यह द्वादशानुप्रेक्षा तो उधर कर्नाटक से आने वाले प्रायः सभी यात्रीगण यहां सुनाया करते हैं। मेरी सदा यही भावना रहती है कि जो विद्या पढ़ें उसका उपयोग भगवान् की स्तुति आदि में अवश्य करें। आपने श्रावकों की क्रियारूप, पूजा विधान आदि क्यों बनायें? पद्मनंदिपंचविंशतिका ग्रंथ में श्रीपद्मनंदि आचार्य ने एक पूजा का अष्टक लिखा है। श्रीपूज्यपाद स्वामी ने "पंचामृत अभिषेक पाठ" बनाया है। श्री अभयनंदिसूरि, श्रीगुणभद्रसूरि आदि अनेक आचार्यों ने पंचामृत अभिषेक पाठ आदि रचे हैं। श्रीवसुनंदि आचार्य ने "प्रतिष्ठापाठ" ग्रंथ बनाया है। जब बड़े-बड़े आचार्य पूजा ग्रंथों की रचना कर सकते हैं तो हम जैसी आर्यिकाओं के लिये भला क्या दोष है? यह तो गुण ही है। श्री कुंदकुंददेव ने भी प्रवचनसार ग्रंथ में कहा है दसणणाणुवदेसो, सिस्सरहणं च पोसणं तेसिं । चरिया हि सरागाणं, जिणिंदपूजोवदेसो य। इसमें महान आचार्यों को भी जिनेंद्रदेव की पूजा करने के लिये उपदेश देने का आदेश दिया है। इत्यादि । इन पूजा विधानों से आपको क्या लाभ मिला? इस पंचमकाल में ध्यान आदि तो संभव नहीं है भक्तिमार्ग ही सबके लिए सुलभ है। इससे तमाम कर्मों की निर्जरा होती है पूजा के पद्यों को बनाते समय मन की कितनी एकाग्रता होती है यह तो अनुभवगम्य ही है। उस समय कैसे-कैसे भक्ति के भाव उत्पन्न होते हैं उससे जो परिणामविशुद्धि होती है और जो आनंद आता है वह भी वचन से नहीं कहा जा सकता है। आपको अधिक मैं क्या बताऊं, जब मुझे टाइफाइड बुखार हुआ था बाद में पीलिया हो गया था। उस समय मैं इतनी कमजोर हो गई कि करवट बदलना भी मुश्किल सा था। उन दिनों में इन्द्रध्वज विधान की जयमालायें बहुत ही रुचि से सुना करती थी। एक-एक जयमालाओं में कहीं पंचपरिवर्तन का स्वरूप वर्णित है कहीं चतुर्गति के दुःखों का वर्णन है तो कहीं अध्यात्म भावना भरी हुई हैं। इन जयमाला स्तुतियों ने तो मुझे जैसे जीवनदान ही दिया है। अतः मुझे इन स्तुति रचना व पूजा विधान रचनाओं से जितना लाभ मिला है वह वचन व मन के भी परे ही है। पूज्य माताजी! आपकी जिनेन्द्रभक्ति एवं गुरुभक्ति अत्यन्त सराहनीय एवं अनुकरणीय है। आपके चरणों में शतशः नमन । ब्र.रवीन्द्र जीमाताजी ब्र.रवीन्द्र जैनमाताजी संपादकगण Jain Educationa international www.jainelibrary.org For Personal and Private Use Only

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