Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

Previous | Next

Page 757
________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६८९ दोनों हाथों की हथेली मिलाकर और दोनों कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े होने को मुक्ताशुक्ति मुद्रा कहते हैं। चरणानुयोग के ग्रन्थों के अनुसार सामायिक में ईर्यापथशुद्धि, चैत्यभक्ति, पंचगुरूभक्ति एवं समाधिभक्ति का पाठ पढ़कर जाप्य अथवा ध्यान किया जाता है। इस पूरे सामायिक पाठ का पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा हिन्दी पद्यानुवाद होकर भी प्रकाशित हो चुका है जिसे पढ़ने से सामायिक का पूर्ण अर्थ हृदयगंम हो जाता है। अर्थ को समझते हुए अपनी दैनिक क्रिया करने पर कर्मनिर्जरा भी विशेष रूप से होती है। यहां तक सामायिक नामक प्रथम आवश्यक का संक्षिप्त वर्णन हुआ। 2- स्तुति आवश्यक-चतुर्विंशति तीर्थंकरों के नाम का स्तवन करना, उनकी प्रतिमाओं की स्तुति करना, उनके शरीर के वर्ण, ऊँचाई आदि के वर्णन से स्तुति करना, उनके शरीर के वर्ण, ऊँचाई आदि के वर्णन से स्तुति करना, उनके पंचकल्याणक क्षेत्रों की स्तुति करना आदि स्तुति आवश्यक है। 3- वंदना आवश्यकः- एक तीर्थंकर की या किन्हीं एक गुरू आदि की वंदना करना वंदना आवश्यक है। जिस आचार्य या गणिनी के पास आर्यिकाएं निवास करती हैं उन्हें उन गुरू के पास कृतिकर्म पूर्वक वंदना करनी चाहिए। जैसे प्रातः और मध्याहू की सामायिक के अनंतर लघु सिद्ध, आचार्यभक्ति पढ़कर गुरू की वंदना की जाती है तथा दैवसिक प्रतिक्रमण के पश्चात् गुरूवंदना की जाती है। गुरू यदि बहुश्रुत ज्ञानी हैं तो लघु सिद्ध, श्रुत और आचार्य भक्ति पढ़कर गुरुवंदना की जाती है। आशीर्वाद व्यवस्था आचार्य या मुनि को जब आर्यिका नमोस्तु करती हैं तो वे उन्हें “समाधिरस्तु" आशीर्वाद देते हैं तथा गणिनी को या दीक्षा में बड़ी आर्यिकाओं को वंदामि करने पर वे लोग वंदामि बोल कर उन्हें प्रतिवंदना करती हैं। आर्यिकाओं को जब क्षुल्लक, क्षुल्लिका या व्रती लोग वंदामि करते हैं तो आर्यिकाएं उन्हें “समाधिररस्तु" कह कर आशीर्वाद प्रदान करती हैं। सामान्य श्रावक श्राविकाओं के द्वारा नमस्कार किये जाने पर आर्यिकाएं “सद्धर्मवृद्धिरस्तु" आशीर्वाद प्रदान करती हैं। 4- प्रतिक्रमण आवश्यक- अपने द्वारा किये हुये भूतकालीन दोषों के निराकरण हेतु प्रतिक्रमण किया जाता है। जैसा कि आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है सपडिक्कमणो छम्मो पुरिमस्स य पच्छिमजिणस्स। अबराहे पडिकमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ अर्थात् भगवान आदिनाथ और महावीर स्वामी ने "अपराध हो चाहे न हो" अपने शिष्यों को प्रतिक्रमण करने का उपदेश दिया है किन्तु अजितनाथ आदि बाईस तीर्थंकरों ने अपराध होने पर प्रतिक्रमण करने की आज्ञा दी है। क्योंकि आदिनाथ के युग में शिष्य अति सरल जड़मति वाले होने से उनमें दोषों की संभावना अधिक रहती थी तथा भगवान महावीर के शासनकाल में शिष्य अतिकुटिल वक्रजड़मति वाले होते हैं अतः दोषों की मात्रा अधिक होने के कारण उन्हें प्रतिक्रमण करना जरूरी है। इस प्रतिक्रमण के सात भेद हैं-दैवसिक, रात्रिक, ऐपिथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ । आर्यिका संघ की गणिनी के सान्निध्य में समस्त आर्यिकाओं को समय-समय पर वे प्रतिक्रमण करना चाहिए तथा गणिनी द्वारा अथवा आचार्य द्वारा प्रायश्चित भी लेना चाहिए। 5- प्रत्याख्यान आवश्यक- अपने वर्तमान तथा भविष्यत् कालीन अतिचार-दोषों का गुरु के सामने त्याग करना प्रत्याख्यान कहलाता है। और आहार के पश्चात् अगले चौबीस घन्टे तक चतुर्विध आहार का त्याग, उपवास, बेला-तेला आदि ग्रहण करना भी प्रत्याख्यान है। 6- कायोत्सर्ग आवश्यक- काय का त्याग अर्थात् शरीर से ममत्त्व का त्याग करना कयोत्सर्ग है। खड़े होकर या बैठकर एकाग्रता पूर्वक पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए निश्चल रहना कायोत्सर्ग है। अपनी शक्ति के अनुसार इसका अभ्यास करना चाहिए। जैसे- २७ स्वासोच्छ्वास पूर्वक नव बार णमोकार मंत्र पढ़ने को भी एक कायोत्सर्ग कहा जाता है। आर्यिकाओं की दैनिक क्रिया में प्रतिदिन २८ कायोत्सर्ग तो अतिआवश्यक ही माने गए हैं। आर्यिकाओं की १३ क्रियाएं कौन-कौन सी हैं? छह आवश्यक क्रियाएं, पंचपरमगुरु की वंदना तथा असही-निसही ये तेरह क्रियाएं आर्यिकाएं प्रतिदिन करती हैं। इनमें से आवश्यक क्रियाओं का वर्णन तो अभी हो ही चुका है, ऐसे ही पृथक्-पृथक् या एक साथ पंचपरमेष्ठी की वंदना भी की जाती है। असही और निसही का मतलब यह है कि वसतिका से बाहर जाते समय आर्यिकाएं नौ बार "असही" शब्द का उच्चारण करती हैं तथा वसतिका में प्रवेश करते समय नौ बार "निसही" शब्द का उच्चारण करती हैं। __ आर्यिकाएं अपनी आवश्यक क्रियाओं का पालन करते हुए शेष समय निरन्तर शास्त्र स्वाध्याय, अध्ययन-अध्यापन में लगाती हैं। वे सूत्र ग्रन्थों का भी अध्ययन कर सकती हैं। जैसाकि आचार्य श्रीकुन्दकुन्द स्वामी ने मूलाचार ग्रन्थ में स्पष्ट किया है "अस्वाध्याय काल में मुनि और आर्यिकाओं को सूत्रग्रन्थों का अध्ययन नहीं करना चाहिए किन्तु साधारण अन्य ग्रन्थ अस्वाध्याय काल में भी पढ़ प्रतिदिन करती और निसही का सही" श Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822