Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 756
________________ ६८८ ] अकेले बैठकर दिगम्बर मुनियों से या किसी पुरुष से वार्तालाप नहीं करना चाहिए तथा मुनियों की सेवा, वैयावृत्ति भी नहीं करना चाहिए। मुख्य रूप से स्त्रीलिंग का छेद करने हेतु ही आर्यिका दीक्षा धारण की जाती है अतः इस आर्यिका दीक्षा को प्राप्त करके सदैव जीवन को वैराग्यमयी बनाना चाहिए। गृहस्थियों की किन्हीं रागजनित बातों में उन्हें रुचि नहीं लेनी चाहिए। क्योंकि गृह सम्बन्धी समस्त कार्य उनके लिए त्याज्य हो जाते हैं। बीमार होने पर स्वयं अपने हाथ से किसी प्रकार की औषधि भी वे नहीं बनाती हैं। अपनी गणिनी गुरु से ही अपना दुःख बालकवत् बताना चाहिये तब गुरु स्वयं उसके योग्य औषधि श्रावकों के द्वारा बनवाकर आहार में दिलवाती हैं। मुनियों के समान ही ये आर्यिकाएं श्रावक के घर में पड़गाहन विधि से जाकर बैठकर करपात्र में आहार ग्रहण करती हैं उसके पश्चात् श्रावक इनके कमण्डलु में गरम जल भर देते हैं। बिना गरम किया हुआ कच्चा जल वे नहीं छूती हैं। श्राविकाएं छने हुए प्रासुक जल से इनकी साड़ी धोकर सुखा देती है अथवा ये स्वयं कमण्डलु के जल से साड़ी धोकर सुखा सकती हैं आर्यिकाएं साबुन आदि का प्रयोग नहीं कर सकती है। वे दो, तीन या चार महीने में अपने सिर के बालों का लॉच करती हैं मुनियों की वसतिका में आर्यिकाओं का रहना, लेटना आदि वर्जित है। वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला मासिक धर्म की अवस्था में आर्यिकाएं तीन दिन तक मौन से रहती हैं तथा जिनमन्दिर से अलग वसतिका में रहकर मानसिक रूप स महामत्र का एवं बारह भावनाओं का चिन्तवन करती हैं। सामायिक प्रतिक्रमण आदि भी केवल मन में चिन्तवन करती हैं। ओष्ठ, जिव्हा आदि न हिलने पाये ऐसा मंत्र स्तोत्रादि का चिंतन भी चलता है। वे इस अवस्था में किसी का स्पर्श भी नहीं करती हैं। आचारसार ग्रन्थ में वर्णन आया है ऋतौ स्नात्वा तु तुन्हि शुद्धंल्यरसमुक्तयः । कृत्वा त्रिरात्रमेकांतरं वा सज्जपसंयुताः ((९०)) अर्थात् रजस्वला अवस्था में तीन दिनों तक यदि उपवास की शक्ति नहीं है तो छहों रस का त्याग कर नीरस आहार करती हैं तथा चौथे दिन कोई श्राविका इन्हें गरम जल से स्नान करा देती हैं तब वह आर्यिका शुद्ध होकर अपनी गणिनी के पास जाकर प्रायश्चित ग्रहण करती है। आर्यिकाओं के छह आवश्यक - अवश्य करने योग्य क्रिया को आवश्यक कहते हैं। वे आवश्यक क्रियायें छह होती हैं जिन्हें मुनियों तथा आर्यिकाओं को प्रतिदिन करना चाहिए। छह आवश्यक के नाम - सामायिक, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग । सामायिक आवश्यक - सम्पूर्ण इष्ट-अनिष्ट वस्तुओं का रागद्वेष छोड़कर समताभाव में लीन होना सामायिक है यह जिनकल्पी मुनि कुछ नियत काल तक अथवा जीवन पर्यन्त के लिए ग्रहण करते हैं। सामायिक के दो भेद हैं-नियतकाल, अनियतकाल । नियत काल सामायिक तीनों सन्ध्याओं में की जाती है। मूलाचार टीका में आचार्य श्री वसुनन्दि ने सामायिक व्रत का लक्षण बताते हुए कहा है "त्रिकालदेववंदनाकरणं च तत्सामायिकं व्रतं भवति" अर्थात् प्रतिदिन प्रातः मध्याह्न और सायं को तीनों संध्याओं में त्रिकाल देवबन्दना करना सामायिक है जैसा कि वर्तमान में सभी साधु साध्वियाँ करते हैं। इसी सामायिक को देववन्दना भी कहते हैं। देववन्दना करने के लिए छह बातों का ध्यान देना आवश्यक है। 1 वन्दना करने वाले की स्वाधीनता 2 तीन प्रदक्षिणा 3- तीन भक्ति सम्बन्धी तीन कायोत्सर्ग 4 तीन निषद्या 5 चार शिरोनति 6- बारह आवर्त Jain Educationa International आगमविधि पूर्वक सामायिक (देववन्दना) करने हेतु चार प्रकार की मुद्रायें मानी गई हैं। १- जिनमुद्रा, २- योगमुद्रा, ३- वन्दनामुद्रा, ४- मुक्ताशुक्तिमुद्रा । दोनों पैरों में चार अंगुल प्रमाण अन्तर रखकर दोनों भुजाओ को नीचे लटका कर कायोत्सर्ग रूप से खड़े होना जिनमुद्रा है। पदमासन, पर्यंकासन और वीरासन इन तीनों आसनों से बैठकर गोद में नाभि के समीप दोनों हाथों की हथेलियों को चित्त रखने को जिनेन्द्रदेव योगमुद्रा कहते हैं । दोनों हाथों को मुकुलित कर और उनकी कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े होना वन्दना मुद्रा है। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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