Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 755
________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६८७ __ अर्थात् गणधर आदि देवों ने उन आर्यिकाओं की सज्जाति आदि को सूचित करने के लिए उनमें उपचार से महाव्रत का आरोपण करना बतलाया है। साड़ी धारण करने से आर्यिकाओं में देशव्रत ही होते हैं परन्तु सज्जाति आदि कारणों से गणधर आदि देवों ने उनके देशव्रतों में उपचार से महाव्रतों का आरोपण किया है। प्रायश्चित्त ग्रन्थ में भी आर्यिकाओं को मुनियों के बराबर प्रायश्चित का विधान है तथा क्षुल्लक आदि को उनसे आधा इत्यादि रूप से है साधुनां यद्वदुद्दिष्ट मवेमार्यागणस्य च। दिनस्थान त्रिकालोनं प्रायश्चित्तं समुच्यते ।।१४ ।। जैसा प्रायश्चित्त मुनियों के लिए कहा गया है वैसा ही आर्यिकाओं के लिए कहा गया है। विशेष इतना है कि दिन प्रतिमा योग, त्रिकालयोग चकार शब्द से अथवा अन्य ग्रन्थों के अनुसार पर्यायच्छेद (दीक्षा छेद) मूलस्थान तथा परिहार ये प्रायश्चित्त भी आर्यिकाओं के लिए नहीं हैं। आर्यिकाओं के लिए दीक्षावधि भी अलग से नहीं है। मुनिदीक्षा विधि से ही उन्हें दीक्षा दी जाती है। इन सभी कारणों से स्पष्ट है कि आर्यिकाओं के व्रत, चर्या आदि मुनियों के सदृश हैं। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह निकलता है कि एक-एक मूलगुण को अतिचार रहित पालन करने वाली आर्यिकाएं मुक्तिपथ की अनुगामिनी होती हैं। यही व्यवस्था अनादिकाल से चली आ रही है। वर्तमान में भी यही व्यवस्था देखने में आती है कि ये आर्यिकाएं एक साड़ी पहनती हैं जिससे उनका सम्पूर्ण शरीर ढका रहता है, हाथ में मयूर पंख की पिच्छी रखती हैं तथा शौच का उपकरण काठ या नारियल का कमंडलु रखती हैं। आर्यिकाओं के २८ कायोत्सर्ग- मुनि आर्यिकाओं के दैनिक २८ कायोत्सर्ग होते हैं जो कि प्रातःकाल से रात्रि विश्राम के पूर्व तक किए जाते हैं। उन्हीं का स्पष्टीकरण किया जाता है सर्वप्रथम प्रातःकाल से इन कायोत्सर्गों का शुभारम्भ होता है। यूं तो साधु जीवन में प्रतिक्षण स्वाध्याय-अध्ययन आदि की प्रमुखता होने से शुभोपयोग ही रहता है तथापि आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कृतिकर्म विधि पूर्वक उन्हीं क्रियाओं को करने का आदेश दिया है जिनमें कायोत्सगों की गणना हो जाती है। यहां एक कायोत्सर्ग का अभिप्राय सत्ताईस स्वासोच्छ्वास में नौ बार णमोकार मंत्र जपना है। रात्रि एक बजे के पश्चात् से लेकर सूर्योदय से २ घड़ी पूर्व तक यथाशक्ति स्वाध्याय करना चाहिए। इसे अपररात्रिक स्वाध्याय कहते हैं। स्वाध्याय प्रारंभ करने से पूर्व स्वाध्याय प्रतिष्ठापन हेतु लघु श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति सम्बन्धी दो कायोत्सर्ग होते हैं, पुनः स्वाध्याय के पश्चात् स्वाध्याय निष्ठापन हेतु श्रुतभक्ति सम्बन्धी एक कायोत्सर्ग होता है। ऐसे एक स्वाध्याय करने में तीन कायोत्सर्ग होते हैं। यद्यपि यह विधि अधिक प्रचलन में नहीं है प्रायः नौ बार गणोकार मंत्र मात्र पढ़कर लोग स्वाध्याय प्रारम्भ कर देते, हैं और अन्त में भी नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर स्वाध्याय समापन कर देते हैं,किन्तु आगमानुसार उपर्युक्त विधि आवश्यक होती है। पुनः रात्रि सम्बन्धी दोषों का शोधन करने हेतु गणिनी के पास रात्रिक प्रतिक्रमण करना होता है, जिसमें सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमण भक्ति, वीरभक्ति और चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति इन चार भक्ति सम्बन्धी ४ कायोत्सर्ग होते हैं पुनः रात्रियोग निष्ठापन करने हेतु योगभक्ति सम्बन्धी एक कायोत्सर्ग होता है। इसके अनंतर सूर्योदय से दो घड़ी पूर्व और दो घड़ी पश्चात् तक के सन्धिकाल में पौर्वाहिक सामायिक की जाती है। इस सामायिक में चैत्यभक्ति और पंचगुरु भक्ति सम्बन्धी दो कायोत्सर्ग होते हैं। अनंतर पौर्वाहिक स्वाध्याय सूर्योदय के दो घड़ी बाद होता है उसमें भी पूर्वोक्त अपररात्रिक सदृश तीन कायोत्सर्ग होते हैं। पुनः आहारचर्या सम्पन्न होती है। उसके पश्चात् आर्यिकाएं मध्याह्न की सामायिक करती हैं जिसमें २ कायोत्सर्ग होते हैं। सामायिक का जघन्य काल २ घड़ी अर्थात् ४८ मिनट होता है। इससे अधिक घण्टे दो घण्टे भी सामायिक की जा सकती है। अनंतर मध्याह्न की चार घड़ी बीत जाने पर अपराण्हिक स्वाध्याय किया जाता है जिसमें तीन कायोत्सर्ग होते हैं। इसके पश्चात् दिवस संबंधी दोषों के क्षालन हेतु सभी आर्यिकाएं सामूहिक रूप से दैवसिक प्रतिक्रमण करती हैं। जिसमें चार कायोत्सर्ग होते हैं। पुनः अपनी वसतिका में आकर सामायिक के पूर्व रात्रियोग प्रतिष्ठापन के लिए योग भक्ति करती हैं जिसका एक कायोत्सर्ग होता है। रात्रि योग का मतलब यह है कि "मैं आज रात्रि में इस वसतिका में ही निवास करूंगी।" क्योंकि साधुजन रात्रि में यत्र-तत्र विचरण नहीं करते हैं। मल-मूत्रादि विसर्जन के लिए भी दिन में ही स्थान देख लेते हैं जो कि वसतिका के आस-पास हो होता है। अनंतर आर्यिकाएं सायंकालिक (देववंदना) करती हैं उसमें उपर्युक्त दो कायोत्सर्ग होते हैं। पुनः पूर्वरात्रिक स्वाध्याय के तीन कायोत्सर्ग करती हुई अपने अहोरात्रि के अट्ठाईस कायोत्सर्ग प्रतिदिन पूर्ण सावधानी पूर्वक करती हैं। पुनः महामंत्र का स्मरण करते हुए रात्रि विश्राम करती हैं। यही चर्या मुनि आर्यिकाओं की प्राचीनकाल से चली आ रही है अतः समस्त आर्यिकाओं को इन्हीं क्रियाओं का पालन करना चाहिए। अपने दैनिक कर्तव्यों का पालन करते हुए यदि कोई आर्यिका विदुषी हैं तो समय निकालकर भव्य प्राणियों को धर्म प्रवचन सुनाकर लाभान्वित भी करती हैं। इस प्रकार संक्षेप में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में दीक्षित आर्यिकाओं के २८ कायोत्सर्ग का वर्णन मैंने किया है। आर्यिकाओं के लिए न करने योग्य कार्य कौन से हैं आर्यिकाओं को मुनियों की वंदना करने के लिए अकेले नहीं जाना चाहिए। गणिनी आर्यिका के साथ अथवा दो-चार मिलकर जाना चाहिए। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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