Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 753
________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६८५ आगम में कहे अनुसार गमनागमन, भाषण आदि में सम्यक् प्रवृत्ति करना समिति है। इसके भी पाँच भेद हैं-ईया, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उत्सर्ग। ६. ईर्यासमिति-निर्जंतुक मार्ग से सूर्योदय होने पर चार हाथ आगे जमीन देखकर एकाग्रचित्त करके तीर्थ यात्रा, गुरु वंदना आदि धर्म कार्यों के लिए गमन करना ईर्यासमिति है। ७. भाषा समिति-चुगली, हँसी, कर्कश, पर-निंदा आदि से रहित हित, मित और असंदिग्ध वचन बोलना भाषा समिति है। ८. एषणा समिति-छियालिस दोष और बत्तीस अंतराय से रहित नवकोटि से शुद्ध श्रावक के द्वारा दिया गया ऐसा प्रासुक निर्दोष पवित्र करपात्र में आहार लेना एषणा समिति है। ९. आदान निक्षेपण समिति-पुस्तक कमंडलु आदि को रखते उठाते समय कोमल मयूर पिच्छिका से परिमार्जन करके रखना, उठाना, तृण-घास, चटाई, पाटे आदि को भी सावधानी से देखकर पिच्छिका से परिमार्जन करके ग्रहण करना या रखना, आदान निक्षेपण समिति है। १०. उत्सर्ग समिति-हरी, घास, चिंवटी आदि जीवजन्तु से रहित प्रासुक, ऐसे एकांत स्थान में मलमूत्रादि विसर्जन करना यह उत्सर्ग या प्रतिष्ठापन समिति है। स्पर्श रसना आदि पाँचों इंद्रियों को वश में रखना, इनको शुभ ध्यान में लगा देना पंचेन्द्रिय निरोध होता है। इसके भी पाँच इन्द्रियों की अपेक्षा से पाँच भेद होते हैं। ११. स्पर्शन इंद्रिय निरोध-निरोध सुखदायक, कोमल स्पर्शादि में या कोठोर कंकरीली भूमि आदि के स्पर्श में आनन्द या खेद नहीं करना। १२. रसनेंद्रिय निरोध-सरस मधुर भोजन में या नीरस, शुष्क भोजन में हर्ष विषाद नहीं करना। १३. घ्राणेंद्रिय निरोध-सुगन्धित पदार्थ में या दुर्गन्धित वस्तु में रागद्वेष नहीं करना। १४. चाइंद्रिय निरोध-स्त्रियों के सुन्दर रूप या विकृतवेष आदि में राग भाव नहीं करना और द्वेष भाव भी नहीं करना। १५. कर्णेन्द्रिय निरोध-सुन्दर-सुन्दर गीत, वाद्य तथा असुन्दर-निन्दा, गाली आदि के वचनों में हर्ष विषाद नहीं करना । यदि कोई मधुर गीतों से गान करता हो तो उसे राग भाव से नहीं सुनना। जो अवश-जितेन्द्रिय मुनि का कर्तव्य है, वह आवश्यक कहलाता है। उसके छः भेद हैं-समता, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याखान और कायोत्सर्ग । १६. समता-जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख आदि में हर्ष विषाद नहीं करना, समान भाव रखना समता है। इसी का नाम सामायिक है। त्रिकाल में देववंदना करना यह भी सामायिक व्रत है। प्रातः मध्याह्न और सायंकाल में विधिवत् कम से कम एक मुहूर्त-४८ मिनिट तक सामायिक करना होता है। १७. स्तुति-वृषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना स्तुति नाम का आवश्यक है। १८. वंदना- अरिहंतों को, सिद्धों को, उनकी प्रतिमा को जिनवाणी को और गुरुओं को कृतिकर्म पूर्वक नमस्कार करना वंदना है। १९. प्रतिक्रमण-अहिंसादि व्रतों में जो अतिचार आदि दोष उत्पन्न होते हैं, उनकी निंदा गर्दा पूर्वक शोधन करना-दूर करना प्रतिक्रमण है। इसके भी सात भेद हैं-ऐर्यापथिक, दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ । __गमनागमन से हुये दोषों को दूर करने के लिये पडिक्कमामि भंते इरियावहियाए विराहणाए" इत्यादि दण्डकों का उच्चारण करके कार्योत्सर्ग करना ऐपिथिक प्रतिक्रमण है। दिवस सम्बन्धी दोषों को दूर करने के लिये सायंकाल में "जीवे प्रमादजनिता" इत्यादि पाठ करना दैवसिक, रात्रि सम्बन्धी दोषों के निराकरण हेतु रात्रि के अंत में प्रतिक्रमण करना रात्रिक, प्रत्येक मास की चतुर्दशी या पूर्णिमा या अमावस्या को करना पाक्षिक, कार्तिक और फाल्गुन मास के अंत में करना चातुर्मासिक, आषाढ़ी अन्तिम चतुर्दशी या पूर्णिमा को करना सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है एवं समाधि के समय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण किया जाता है। २०. प्रत्याख्यान-मन वचन काय से भविष्य के दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। आहार ग्रहण करने के अनंतर गुरु के पास अगले दिन आहार ग्रहण करने तक के लिए जो लघुसिद्दयोगभक्ति पूर्वक चतुराहार का त्याग किया जाता है, वह प्रत्याख्यान कहलाता है। २१- दैवसिक-, रात्रिक आदि क्रियाओं में पच्चीस या सत्ताईस उच्छवास प्रमाण से तथा चौवन, एक सौ आठ आदि श्वासोच्छ्वास पूर्वक णमोकार मंत्र का स्मरण करना । काय-शरीर से उत्सर्ग-ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है। यहां तक इक्कीस मूलगुण हुए हैं अब शेष सात को भी स्पष्ट करते हैं। २२- (१) लोच- अपने हाथ से अपने सिर, दाढ़ी और मूंछ के बाल उखाड़ना केशलोंच मूलगुण है। केश में जूं आदि जीव पड़ जाने से हिंसा होगी या उन्हें संस्कारित करने के लिये तेल, साबुन आदि की जरूरत होगी जो टि साधु पद के विरुद्ध होगा। अतः दीनता, याचना परिग्रह अपमान आदि दोषों से बचने के लिये यह क्रिया है। लोच के दिन उपवास करना होता है और लोच करते या कराते समय मौन रखना होता है। इसके उत्तम, मध्यम और जघन्य ऐसे तीन भेद हैं- दो महीने पूर्ण होने पर उत्तम, तीन महीने में मध्यम और चार महीने पूर्ण होने पर जघन्य । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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