Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 752
________________ ६८४] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला मोक्ष व्यवस्था दिगम्बर मुनि विशेष तपश्चरण के द्वारा उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। विदेह क्षेत्र से सतत और भरतक्षेत्र से चतुर्थ काल में साक्षात् मोक्षपरम्परा चालू रहती है। वर्तमान में यहाँ पंचमकाल चल रहा है, अतः मोक्ष नहीं है, शुक्लध्यान नहीं है, किन्तु मोक्ष का मार्ग चल रहा है। इस काल में उत्तम संहनन का अभाव है, इसीलिए ये सभी चीजें सुलभ नहीं हैं। हाँ, इस भव से मुनिगण उत्कृष्ट धर्मध्यान के बल पर इन्द्रत्व एवं लोकान्तिक देव के पद को प्राप्त कर वहाँ से च्युत होकर अगले मनुष्य भव में मुनि अवस्था धारण कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा श्री कुंदकुंद देव ने मोक्षपाहुड़ में कहा है अज्जवि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इन्दत्तं । लोयन्तियदेवत्तं तंत्थचुदा णिव्वुदि जन्ति ॥ ७७ ॥ यह तो हुई मुनिवेश से मोक्ष व्यवस्था तथा क्षुल्लक-ऐलक बिना मुनि बने मुक्ति की प्राप्ति नहीं कर सकते हैं। दिगम्बर जैन परंपरानुसार द्रव्य पुरुषवेदी ही मोक्ष प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं, स्त्री अथवा नपुंसक नहीं। धवला की प्रथम पुस्तक में इस विषय का स्पष्ट खुलासा आया है कि भाव से तीनों वेदों के द्वारा मोक्ष मिल सकता है, किन्तु द्रव्य से बाह्य में पुरुष वेदी होना आवश्यक है। कर्मभूमि की स्त्रियों के उत्तम संहनन नहीं होते, इसलिए वे चतुर्थकाल में भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती हैं। आज पंचम काल में मुनि के समान आर्यिकाएं भी अट्ठाईस मूलगुण धारण कर एवं उपचार महाव्रती बनकर अपना कल्याण मार्ग प्रशस्त कर रही हैं। ये भी अपने व्रतों का दृढ़ता पूर्वक पालन करके स्वर्ग में इंद्रादि पदवी पाकर अगले मनुष्य भव में पुरुषपर्याय के द्वारा मुनिव्रत धारण कर निर्वाण प्राप्त कर सकती हैं। अतः स्त्रीलिंग छेदन एवं दो-तीन भवों में मोक्ष प्राप्त करने के लिए ही मुख्य रूप से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की जाती है। लोकानुरञ्जन अथवा ख्याति, लाभ, पूजा आदि के निमित्त से ली गई दीक्षा जीवन में कभी सारभूत तत्त्व को प्राप्त नहीं करा सकती है। जिस प्रकार से मूल-जड़ के बिना वृक्ष नहीं ठहरता, मूल-नींव के बिना मकान नहीं बनता। उसी प्रकार मूल-प्रधान आचरण के बिना श्रावक और साधु दोनों की सार्थकता नहीं होती है। यहाँ पर आर्यिकाओं की चर्या का प्रकरण चल रहा है, अतः उनके मूलगुणों का ही कथन किया जा रहा है। मुख्यरूप से मुनियों के मूलगुण २८ होते हैं। जैसा कि प्रतिक्रमण पाठ में स्थान-स्थान पर कथन आता है वदसमिदिदिय रोधो, लोचो आवासयमचेलमण्हाणं खिदिसयणमदंतवणं, ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥ १ ॥ एदे खलु मूलगुणा, समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। एत्थ पमादकदादो, अइचारादो णियत्तोहं ॥ २ ॥ पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निदोध, षट् आवश्यक क्रिया, लोच, आचेलक्य, अनान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन और एक भक्त । ये २८ मूलगुणों के नाम हैं। इन्हें तीर्थंकर आदि महापुरुष भी मुनि अवस्था में पालन करते हैं एवं ये स्वयं महान् हैं, अतः इन व्रतों को महाव्रत भी कहते हैं। इन २८ मूलगुणों के अलग-अलग नाम और लक्षण यहाँ पर प्रस्तुत हैं। १. अहिंसा महाव्रत-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये छह काय हैं, इन छहकायिक जीवों की हिंसा का मन-वच-काय से पूर्णतया त्याग कर देना अहिंसा महाव्रत है। इस महाव्रत वाले सम्पूर्ण आरंभ और परिग्रह से रहित दिगम्बर मुनि होते हैं और एक साड़ी मात्र परिग्रह वाली आर्यिकायें होती हैं। २. सत्यमहाव्रत-रागद्वेष, मोह, क्रोध आदि दोषों से भरे हुए वचनों का त्याग करना और ऐसा सत्य भी नहीं बोलना कि जिससे प्राणियों का घात होता हो, सो सत्य महाव्रत है। ३. अचौर्य महाव्रत-ग्राम, शहर आदि में किसी की भूली, रखी या गिरी हुई वस्तु को स्वयं नहीं लेना, दूसरों के द्वारा संग्रहीत शिष्य, पुस्तक आदि को भी न लेना तथा दूसरों के दिए बिना योग्य वस्तु को भी नहीं लेना अचौर्य महाव्रत है। ४. ब्रह्मचर्य महाव्रत-रागभाव को छोड़कर पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना, बालिका युवती और वृद्धा में पुत्री, बहन और माता के समान भाव रखना त्रैलोक्य पूज्य ब्रह्मचर्य महाव्रत है। पुरुषों में वृद्ध, युवा और बालक में पिता, भाई और पुत्र का भाव रखते हुए पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करना यह आर्यिकाओं के लिए ब्रह्मचर्य महाव्रत है। ५. परिग्रह त्याग महाव्रत-धन, धान्य आदि दश प्रकार के बहिरंग तथा मिथ्यात्ववेद आदि चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह का त्याग करना, वस्त्राभूषण अलंकार आदि का पूर्णतया त्याग कर देना यहाँ तक कि लंगोट मात्र भी नहीं रखना अपरिग्रह महाव्रत है। आर्यिकाओं के लिए दो साड़ी रखने का विधान है। यही उनका अपरिग्रह महाव्रत है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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