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वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला
सकते हैं।" इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि आर्यिकाएं भी स्वाध्याय काल में सिद्धांत ग्रन्थों को पढ़ सकती हैं। दूसरी बात यह है कि आर्यिकाएं द्वादशांग श्रुत के अन्तर्गत ग्यारह अंगों का भी अध्ययन कर सकती हैं, जैसाकि हरिवंश पुराण में कथना आया है
द्वादशांगधरो जातः क्षिप्रं मेघेश्वरो गणी।
एकादशांगभृज्जातः सार्यिकापि सुलोचना ॥ अर्थात् मेघेश्वर-जयकुमार शीघ्र ही द्वादशांग के पाठी होकर भगवान् के गणधर हो गए और आर्यिका सुलोचना भी ग्यारह अंगों की धारक हो गई। वर्तमान में दिगम्बर संप्रदाय में ग्यारह अंग और चौदह पूर्व की उपलब्धि नहीं है, उनका अंश मात्र उपलब्ध है अतः उन्हीं का अध्ययन करना चाहिए।
दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के अनुसार साध्वियों के दो भेद हैं-आर्यिका और क्षुल्लिका। अभी तक संक्षेप से आर्यिका का स्वरूप बतलाया है। क्षुल्लिकाएं ग्यारह प्रतिमा के व्रतों को धारण कर दो धोती और दो दुपट्टे का परिग्रह रखती हैं। इनकी समस्त चर्या क्षुल्लक के सदृश होती है। ये केशलोंच करती हैं अथवा कैंची से दो तीन या चार महीने में सिर के केश निकालती हैं। ये भी आर्यिकाओं के पास में रहती हैं उनके पीछे आहार को निकलकर पड़गाहन विधि से श्रावकों के यहां पात्र में भोजन ग्रहण करती हैं। इस प्रकार से स्त्रियों में साध्वीरूप में आर्यिका और क्षुल्लिका ये दो भेद ही होते हैं। दोनों के पास मयूर पिच्छिका रहती है। पहचानने के लिए क्षुल्लिका के पास चादर रहती है और पीतल या स्टील का कमण्डलु रहता है।
प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि पूर्व में अधिकतर आर्यिकाएं ही आर्यिका दीक्षा प्रदान करती थीं। तीर्थंकरों के समवशरण में भी जो आर्यिका सबसे पहले दीक्षित होती थीं वे ही गणिनी के भार को संभालती थीं। तीर्थंकर देव के अतिरिक्त किन्हीं आचार्यों द्वारा आर्यिका दीक्षा देने के उदाहरण प्रायः कम मिलते हैं। इन आर्यिकाओं की दीक्षा के लिए जैनेश्वरी दीक्षा शब्द भी आया है। इन्हें महाव्रत पवित्रांगा भी कहा है और संयमिनी संज्ञा भी दी है।
जब आर्यिकाओं के व्रत को उपचार से महाव्रत कहा है और सल्लेखना काल में उपचार से निर्ग्रन्थता का आरोपण किया है इसीलिए वे मुनियों के सदृश वंदनीय होती हैं। ऐसा समझकर आगम की मर्यादा को पालते हुए आर्यिकाओं की नवधाभक्ति करके उन्हें आहारदान देना चाहिए और समयानुसार यथोचित भक्ति करना, उन्हें पिच्छी, कमंडलु, शास्त्र आदि दान भी देना चाहिए। वर्तमान की आर्यिकाएं
प्राचीनकाल में जैसे आर्यिकाएं आचार्यों के संघ में भी रहती थीं और पृथक् भी आर्यिका संघ बनाकर विचरण करती थीं उसी प्रकार वर्तमान में भी आचार्य श्री विमलसागर महाराज, आचार्य श्री अभिनंदनसागर महाराज आदि बड़े-बड़े संघों में भी आर्यिकाएं क्षुल्लिकाएं रहती हैं तथा गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी, गणिनी आर्यिका श्री विजयमती माताजी, गणिनी आर्यिका श्री विशुद्धमती माता जी आदि अनेकों विदुषी आर्यिकाएं अपने-अपने पृथक् संघों के साथ भी विचरण करती हई धर्म की ध्वजा फहरा रही हैं।
गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी वर्तमान में समस्त आर्यिकाओं में सर्वप्राचीन दीक्षित सबसे बड़ी आर्यिका हैं जिन्होंने चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की आज्ञा से उनके पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज के कर कमलों से आर्यिका दीक्षा धारण कर "ज्ञानमती" इस सार्थक नाम को प्राप्त किया है तथा शताब्दी के प्रथम आचार्य से लेकर अद्यावधि समस्त आचार्यों के विषय में अनुभव ज्ञान प्राप्त किया है।
हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप रचना एवं डेढ़ सौ से अधिक ग्रन्थों का सृजन पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी की प्रमुख स्मृतियां हैं। इसी प्रकार से अन्य विदुषी आर्यिकाएं भी यथाशक्ति साहित्य सृजन में संलग्न हैं यह आर्यिकाओं के लिए गौरव का विषय है।
संघ की सभी आर्यिकाएं गणिनी आर्यिका के या किसी प्रमुख आर्यिका के अनुशासन में रहती हैं, प्रमुख आर्यिकाएं उन्हें धर्म ग्रन्थों का अध्ययन भी कराती हैं। इनके स्वाध्याय के लिए या लेखन कार्य के लिए ग्रन्थ, स्याही, कलम, कागज आदि की व्यवस्था श्रावक श्राविकाएं करते हैं। वस्त्र फटने पर भक्तिपूर्वक उन्हें वस्त्र (सफेद साड़ी) प्रदान करते हैं। पिच्छी के लिए मयूर पंख लाकर देते हैं। आर्यिकाएं भी अपने पद के अनुरूप साधुचर्या का पालन करती हैं, पद के विरुद्ध श्रावकोचित कार्यों को नहीं करती हैं तभी उनकी आत्मा का कल्याण और स्त्री लिंग का छेदन संभव हो पाता है। ध्यान, अध्ययन के साथ-साथ इस युग में भी महीने-महीने तक का उपवास करने वाली तपस्विनी आर्यिकाएं भी हो चुकी हैं । सन् 1971 के चातुर्मास में अजमेर नगरी में आर्यिका की पद्मावती माताजी (ज्ञानमती माताजी की शिष्या) ने भादों के महीने में सोलह कारण के बत्तीस उपवास करते हुए उत्कृष्ट समाधि प्राप्त कर चुकी हैं जिनके दर्शन मुझे भी करने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है। इसी प्रकार से आठ-दस, सोलह आदि उपवास करने वाली आर्यिकाएं आज भी विद्यमान हैं जो सम्यक्त्व सहित निर्दोष व्रतों का पालन करते हुए निश्चित ही स्त्री पर्याय से छूट कर क्रम से देव पर्याय प्राप्त करेंगी।
आर्यिकाओं की उत्कृष्ट चर्या चतुर्थकाल में ब्राह्मी चन्दना आदि पालन करती थीं तथा पंचमकाल के अन्त तक भी ऐसी चर्या का पालन करने वाली आर्यिका होती रहेंगी। जब पंचमकाल के अन्त में वीरांगज नाम के मुनिराज, सर्वश्री नाम की आर्यिका, अग्निदत्त श्रावक और पंगुश्री श्राविका इस प्रकार चतुर्विध संघ होगा तब कल्की द्वारा मुनिराज के आहार का प्रथम ग्रास टैक्स के रूप में मांगने पर अन्तराय करके चतुर्विध संघ सल्लेखना धारण कर लेगा तभी धर्म, अग्नि और राजा तीनों का अन्त हो जाएगा। अतः भगवान महावीर के शासन में आज तक २५१४ वर्षों तक अक्षुण्ण जैन शासन चला आ रहा है। मुनि आर्यिकाओं की परम्परा भी इसी प्रकार चलती हुई १८४३८ वर्षों तक चलती रहेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
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