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वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला
केशलोंच कहलाता है। चार महीने के ऊपर हो जाने पर साधु प्रायश्चित का भागी होता है।
२३- अचेलकत्व सूती, रेशमी, आदि वस्त्र, पत्र, वल्कल आदि का त्याग कर देना, नग्न वेश धारण करना अचेलकत्व है। यह महापुरुषों द्वारा ही स्वीकार किया जाता है, तीनों जगत् में वंदनीय महान् पद है। वस्त्रों के ग्रहण करने से परिग्रह, आरंभ, धोना, सुखाना और याचना करना आदि दोष होते हैं, अतः निष्परिग्रही साधु के यह व्रत होता है।
२४- अस्नानव्रत-स्त्रान उबटन आदि से शरीर के संस्कारों का त्याग करना, अस्नान व्रत है। धूलि से धूसरित, मलिन शरीरधारी मुनि कर्ममल को धो डालते हैं। चांडालादि अस्पर्श्यजन का हड्डी का चर्म, विष्ठा आदि का स्पर्श हो जाने से वे मुनि दंड स्नान करके गुरु से प्रायश्चित ग्रहण करते हैं। २५- भूमिशयन- निर्जंतुक भूमि में घास या पाटा अथवा चटाई पर शयन करना भूमि शयन व्रत है। ध्यान, स्वाध्याय आदि से या गमनागमन से स्वल्प निद्रा लेना होता है।
२६ अदंतधावन नीम की लकड़ी, बुश आदि से दातौन नहीं करना। दाँतों को नहीं घिसने से इंद्रिय संयम होता है, शरीर से विरागता प्रक होती है और सर्वज्ञ देव की आज्ञा का पालन होता है।
२७. स्थिति भोजन - खड़े होकर अपने दोनों हाथों की अंजुलि बनाकर श्रावक के द्वारा दिया हुआ आहार ग्रहण करना स्थिति भोजन है।
२८. एक भक्त - सूर्योदय के अंनंतर तीन घड़ी के बाद और सूर्यास्त के तीन घड़ी पहले तक दिन में सामायिक काल के सिवाय कभी भी एक बार आहार ग्रहण करना एक भक्त है। आजकल प्रायः ९ बजे से ग्यारह बजे तक साधु जन आहार को जाते हैं। कदाचित् कुछ कारणवश सुबह चर्या में नहीं उठे हैं तो एक बजे के बाद भी जा सकते हैं। दिन में एक बार ही आहार को निकलना चाहिये। कदाचित् लाभ न मिलने पर उस दिन पुनः आहारार्थ नहीं जाना चाहिये।
आर्यिकाओं के ये २८ मूलगुण कैसे होते है? इस बात का खुलासा परमपूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित "आर्यिका” नामक पुस्तक में है। यथा
प्रायश्चित ग्रंथ में आर्यिकाओं के लिए आज्ञा प्रदान की है कि "आर्यिकाओं को अपने पहनने के लिए दो साड़ी रखना चाहिए। इन दो वस्त्रों के सिवाय तीसरा वस्त्र रखने पर उसके लिए प्रायश्चित होता है।"
इन दो वस्त्रों का ऐसा मतलब है कि दो साड़ी लगभग १६-१६ हाथ की रखती हैं। एक बार में एक ही पहनना होता है दूसरी धोकर सुखा देती है जो कि द्वितीय दिवस बदली जाती है। सोलह हाथ की साड़ी के विषय में आगम में कहीं वर्णन नहीं आता है, मात्र गुरु परम्परा से यह व्यवस्था चली आ रही है। आगम में तो केवल दो साड़ी मात्र का उपदेश है।
चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज के प्रथम पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज (ज्ञानमती माताजी के दीक्षा गुरु) करते थे कि दो साड़ी रखने से आर्यिका का "आचेलक्य" नामक मूलगुण कम नहीं होता है किन्तु उनके लिए आगम की आज्ञा होने से यही मूलगुण है। हां! तृतीय साड़ी यदि कोई आर्यिका रखती है तो उसके मूलगुण में दोष अवश्य आता है। इसी प्रकार से “स्थितिभोजन" मूलगुण में मुनिराज खड़े होकर आहार करते हैं और आर्यिकाओं को बैठकर आहार लेना होता है। यह भी शास्त्र की आज्ञा होने से उनका मूलगुण ही है। यदि कोई आर्थिका आगमाशा उल्लंघन कर खड़ी होकर आहार ले लेवे तो अवश्य उसका मूलगुण भंग होता है इसीलिए उनके भी अट्ठाईस मूलगुण मानने में कोई बाधा नहीं है। यही कारण है कि आर्यिकाओं को उपचार से महाव्रती संज्ञा दी गई है।
आर्यिकाएं साड़ी मात्र परिग्रह धारण करते हुए भी लंगोटी मात्र अल्पपरिग्रह धारक ऐलक के द्वारा पूज्य हैं। जैसाकि सागारधर्मामृत में पू. ५१८ पर प्रकरण आया है
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कौपीनेऽपि समूर्च्छत्वान्नार्हत्याम महावतं । अपिभाक्तममूर्च्छत्वात् साटिकेऽप्यार्थिकार्हति ॥ ३६ ॥
श्री आशाधर जी कहते हैं कि अहो आश्चर्य है कि ऐलक लंगोटी में ममत्व परिणाम होने से उपचार से भी महाव्रती नहीं हो सकता है किन्तु आर्यिका साड़ी धारण करने पर भी ममत्व परिणाम रहित होने के कारण उपचार से महाव्रती कहलाती हैं। क्योंकि ऐलक तो लंगोटी का त्याग कर सकता है फिर भी ममत्व आदि कारणों से धारण किए है, किन्तु आर्थिका तो साड़ी त्याग करने में असमर्थ है। उनकी यह साड़ी बिना सिली हुई होनी चाहिए अर्थात् सिले हुए वस्त्र पहनने का उनके लिए निषेध है।
आचारसार ग्रन्थ में भी वर्णन आया है
देशव्रतान्वितैस्तासामारोप्यते बुधैस्ततः । महाव्रतानि सज्जातिज्ञप्त्यर्थमुपचारतः ।। ८९ ।।
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