Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 746
________________ ६७८] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला णमोकार महामंत्र का स्मरण करते हुए एक सुरंग के रास्ते से बच निकले। वे एक बार पुनः अग्नि परीक्षा में सफल हुए। जब "शत्रुजय" में नग्न दिगम्बर मुनि अवस्था में ध्यान में लीन थे, उस समय दुर्योधन के भानजे कुर्यधर ने लोहे के आभूषण बनवाकर गरम करके पहना दिये। जिसके फलस्वरूप बाहर से उनका शरीर जल रहा था और भीतर से कर्म जल रहे थे। उसी समय सम्पूर्ण कर्म जलकर भस्म हो गये और अंतकृत केवली बनकर तीन पांडवों ने निर्वाण प्राप्त किया और नकुल, सहदेव उपशम श्रेणी का आरोहण करके ग्यारहवें गुणस्थान में मरण को प्राप्त करके सर्वार्थसिद्धि गये। कौरव-पांडव तो आज भी घर-घर में देखने को मिलते हैं। यदि विजय प्राप्त करना है तो पांडवों के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। सदैव न्याय नीति से चलना चाहिए। तभी पांडवों की तरह यश की प्राप्ति होगी। धर्म की सदा जय होती है। रक्षाबंधन पर्व एक समय हस्तिनापुर में अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों का संघ आया हुआ था। उस समय यहाँ महापद्म चक्रवर्ती के पुत्र राजा पद्म राज्य करते थे। कारणवश बलि मंत्री ने वरदान के रूप में उनसे सात दिन का राज्य माँग लिया। राज्य लेकर बली ने अपने पूर्व अपमान का बदला लेने के लिए जहाँ सात सौ मुनि विराजमान थे, वहाँ उनके चारों ओर यज्ञ के बहाने अग्नि प्रज्वलित कर दी। उपसर्ग समझकर सभी मुनिराज शान्त परिणाम से ध्यान में लीन हो गये। दूसरी तरफ उज्जयिनी में विराजमान विष्णुकुमार मुनिराज को मिथिला नगरी में चातुर्मास कर रहे मुनि श्री श्रुतसागर जी के द्वारा भेजे गये क्षुल्लक श्री पुष्पदंत से सूचना प्राप्त हुई कि हस्तिनापुर में मुनियों पर घोर उपसर्ग हो रहा है और उसे आप ही दूर कर सकते हैं। यह समाचार सुनकर परम करुणामूर्ति विष्णुकुमार मुनिराज के मन में साधर्मी मुनियों के प्रति तीव्र वात्सल्य की भावना जाग्रत हुई। तपस्या से उन्हें विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न हो गई थी। वे वात्सल्य भावना से ओत-प्रोत होकर उज्जयिनी से चातुर्मास काल में हस्तिनापुर आते हैं। अपनी पूर्व अवस्था के भाई वहाँ के राजा पद्म को डांटते हैं। राजा उनसे निवेदन करते हैं-हे मुनिराज! आप ही इस उपसर्ग को दूर करने में समर्थ हैं। तब मुनि विष्णु कुमार ने वामन का वेष बनाकर बलि से तीन कदम जमीन दान में मांगी। बलि ने देने का संकल्प किया। मुनिराज ने विक्रिया ऋद्धि से विशाल शरीर बनाकर दो कदम में सारा अढ़ाई द्वीप नाप लिया, तीसरा कदम रखने की जगह नहीं मिली। चारों तरफ त्राहिमाम् होने लगा। रक्षा करो, क्षमा करो की ध्वनि गूंजने लगी। बलि ने भी क्षमा मांगी। मुनिराज तो क्षमा के भंडार ही होते हैं। उन्होंने बलि को क्षमा प्रदान की। उपसर्ग दूर होने पर विष्णु कुमार ने पुनः दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण की। सभी ने मिलकर मुनि श्री विष्णुकुमार की बहुत भारी पूजा की। अगले दिन श्रावकों ने भक्ति से मुनियों को खीर-सिवई का आहार दिया और आपस में एक-दूसरे को रक्षा सूत्र बाँधे । यह निश्चय किया कि विष्णुकुमार मुनिराज की तरह वात्सल्य भावना पूर्वक धर्म एवं धर्मायतनों की रक्षा करेंगे। तभी से वह दिन प्रतिवर्ष रक्षाबंधन पर्व के रूप में श्रावण सुदी पूर्णिमा को मनाया जाने लगा। इसी दिन बहनें भाइयों के हाथ में राखी बाँधती हैं। ___अब आगे से रक्षाबंधन के दिन हस्तिनापुर का स्मरण करें। देव गुरु शास्त्र के प्रति तन-मन-धन न्यौछावर कर दें। साधर्मी के प्रति वात्सल्य की भावना रखें। तभी रक्षाबंधन पर्व मनाना सार्थक हो सकता है। दर्शन प्रतिज्ञा में प्रसिद्ध मनोवती गजमोती चढ़ाकर भगवान् के दर्शन कर भोजन करने का अटल नियम निभाने वाली इतिहास प्रसिद्ध महिला मनोवती भी इसी हस्तिनापुर की थी। यह नियम उसने विवाह के पूर्व लिया था। विवाह के पश्चात् जब ससुराल गई तो वहाँ संकोचवश कह नहीं पाई। तीन दिन तक उपवास हो गया। जब उसके पीहर में सूचना पहुँची तो भाई आया, उसे एकान्त में मनोवती ने सब बात बता दी। उसके भाई ने मनोवती के श्वसुर को बताया । तो उसके श्वसुर ने कहा कि हमारे यहाँ तो गजमोती का कोठार भरा है। तभी मनोवती ने गजमोती चढ़ाकर भगवान् के दर्शन करके भोजन किया। इसके बाद मनोवती को तो उसका भाई अपने घर लिवा ले गया। इधर उन मोतियों के चढ़ाने से इस परिवार पर राजकीय आपत्ति आ गई। जिसके कारण मनोवती के पति बुधसेन के छहों भाइयों ने मिलकर उन दोनों को घर से निकाल दिया। घर से निकलने के बाद मनोवती ने तब तक भोजन नहीं किया, जब तक गजमोती चढ़ाकर भगवान् के दर्शनों का लाभ नहीं मिला। जब चलते-चलते थक गये तो रास्ते में सो गये। पिछली रात्रि में उन्हें स्वप्न होता है कि तुम्हारे निकट ही मंदिर है, शिला हटाकर दर्शन करो। उठकर संकेत के अनुसार शिला हटाते ही भगवान के दर्शन हुए। वहीं पर चढ़ाने के लिए गजमोती मिल गये। दर्शन करके भोजन किया। आगे चलकर पुण्ययोग से बुधसेन राजा के जमाई बन गये। इधर वे छहों भाई अत्यन्त दरिद्र अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। गाँव छोड़कर कार्य की तलाश में घूमते-घूमते छहों भाई, उनकी पत्नियाँ व माता-पिता सभी वहाँ पहुँचते हैं, जहाँ बुधसेन जिन मंदिर का निर्माण करा रहे थे। लोगों ने उन्हें बताया कि आप बुधसेन के वहाँ जाओ, आपको वे काम पर लगा लेंगे। वे सभी वहाँ पहुँचे, उनको काम पर लगाया, बुधसेन मनोवती उन्हें पहचान गये, अंत में सबका मिलन हुआ। सभी भाइयों, भौजाइयों तथा माता-पिता Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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