Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 742
________________ ६७४ ] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला जम्बूद्वीप की अस्मिता है हस्तिनापुर तीर्थ स्थान प्रत्येक धर्म, संस्कृति व सभ्यता के इतिहास को संरक्षित व चिरंजीवी बनाते हैं। ये राष्ट्रीय इतिहास के अमूल्य धरोहर भी हैं, क्योंकि विभिन्न संस्कृतियों व विचार परंपराओं का इतिहास इन्हीं की बदौलत लिखा गया है। सोवियत प्राच्य विद्या विदुषी अ. कोरोत्स्काया ने अपने ग्रंथ 'भारत के नगर' में इस तथ्य को रेखांकित किया है कि प्राचीन काल से ही अयोध्या, हस्तिनापुर, अहिच्छत्रा, वाराणसी आदि उत्तर भारत के नगरों का सांस्कृतिक व राजनैतिक महत्व इसलिए बड़ा है, क्योंकि समय-समय पर तीर्थ यात्रियों का यहाँ समागम होता ही रहता था। आधुनिक दृष्टि से इन तीर्थ क्षेत्रों का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है, क्योंकि यहाँ के पुरातात्विक अवशेष साझी संस्कृति की सद्भावना का एक ठोस सबूत पेश करते हैं। Jain Educationa International - डॉ. मोहन चंद रीडर, संस्कृत विभाग, रामजस कालेज, दिल्ली हस्तिनापुर जम्बूद्वीपीय भूगोल का एक प्रधान क्षेत्र रहा है। इसे मात्र एक नगर नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता की प्रवह स्थली मानना चाहिए। वैदिक युग में हस्तिनापुर को राजधानी बना कर गंगा घाटी में कुरु-पांचाल जनों का राजनैतिक इतिहास संघटित हुआ और महाभारत युद्ध के बाद तक चन्द्रवंशी कौरव - पौरव हस्तिनापुर के इतिहास से जुड़े रहे। पुरातत्त्व इस तथ्य की पुष्टि कर चुका है कि महाभारत युद्ध के बाद पाँचवीं पीढ़ी में हुए निचक्षु के राज्यकाल यानी ईसवी पूर्व नवीं शताब्दी में गंगा की भयंकर बाढ़ से हस्तिनापुर का एक बहुत बड़ा हिस्सा वह गया था, तब निचक्षु ने पौरव राजधानी को कौशाम्बी में स्थानान्तरित कर दिया था। पुरातात्त्विक अवशेषों के अलावा महाभारत, पुराण आदि ग्रंथ भी हस्तिनापुर की उपर्युक्त घटनाओं का समर्थन करते हैं। पौराणिक काल की गणना पर यदि विश्वास किया जाए तो २३वीं शताब्दी ईसवी पूर्व में हस्तिनापुर का ऐतिहासिक अस्तित्व आ चुका था। बौद्ध परम्परा के अनुसार जम्बूद्वीप के चक्रवर्ती राजा मांधाता ने जब 'कुरुरदुम' को बसाया तो अपनी राजधानी 'हत्थिपुर' (हस्तिनापुर) बनाई। इस प्रकार बौद्ध अनुश्रुतियों में हस्तिनापुर की प्राग्बौद्धकालीन नगर के रूप में पुष्टि हुई है। 'दिव्यावदान' कुरुराष्ट्र की पूर्व राजधानी हस्तिनापुर बताता है। बाद में इस देश के दक्षिण भाग की राजधानी इन्द्रप्रस्थ हुई और कुम्भजातक के अनुसार बौद्धकाल में कांपिल्ल भी बनी। जैन परम्परा का इतिहास हस्तिनापुर से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध है। जिनप्रभ सूरि रचित 'विविध तीर्थकल्प' में 'हस्तिनापुर कल्प' भी लिखा गया है। इस कल्प के अनुसार आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्र कुरु को कुरुक्षेत्र का राज्य दिया था । इन्हीं कुरु के पुत्र हस्तिन् ने हस्तिनापुर को भागीरथी के किनारे बसाया था । वसुदेव हिंदी में एक ऐसी पौराणिक अनुश्रुति का उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार भगवान् ऋषभदेव ने जब अपने पुत्रों को राज्य बाँटा तो बाहुबली को तक्षशिलों और हस्तिनापुर का राज्य सौंपा था। जैन आगमों के अनुसार तीर्थंकर ऋषभदेव अपनी साधु चर्या में बहली, अंबड आदि स्थानों की यात्रा करते हुए जब हस्तिनापुर पहुँचे तो वहाँ राजा श्रेयांस ने उन्हें अक्षय तृतीया के दिन इक्षुरस का आहार दान कराया था। हस्तिनापुर जैन समाज के लिए तीर्थ स्थान इसलिए भी है, क्योंकि सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ, सत्तरहवें कुंथुनाथ और अठारहवें अरनाथ का जन्म व चारों कल्याणक इसी पवित्र भूमि में हुए थे। पाँचवें, छठे और सातवें तीर्थंकरों की यह 'केवलज्ञान' भूमि है तो चौथे, छठे तथा आठवें चक्रवर्ती की जन्मभूमि भी । विष्णु कुमार नामक जैन साधु भी हस्तिनापुर निवासी थे, जिन्होंने नमुचि नामक दैत्य को वश में किया। पाँच पांडव, रक्षाबंधन पर्व मनोवृत्ति की दर्शन प्रतिष्ठा, द्रौपदी शील-महिमा, राजा अशोक व रोहिणी कथा, अभिनन्दन आदि पाँच सौ मुनियों का उपसर्ग, गजकुमार मुनि-उपसर्ग, महापद्म व परशुराम आख्यान आदि अनेक पौराणिक प्रसंग हस्तिनापुर के धार्मिक व सांस्कृतिक महत्त्व पर प्रकाश डालते हैं। यतिवृषभ, रविषेण, जटा सिंह नन्दि, जिनसेन, गुणभद्र, जिनप्रभ सूरि, उदय कीर्ति, गुणकीर्ति, मेघराज, ज्ञानसागर आदि अनेक जैनाचार्यों ने इस तीन तीर्थंकरों की जन्म नगरी को तीर्थ क्षेत्र के रूप में महामंडित किया है। चौदहवीं शताब्दी ईसवी में आचार्य जिन प्रसूरि ने संघ सहित हस्तिनापुर की यात्रा की और उसके पुरातन इतिहास को संस्कृत व प्राकृत दोनों भाषाओं में निबद्ध किया। सोलह सौ ईसवी में कविवर बनारसी दास ने भी सपरिवार इस तीर्थ क्षेत्र की यात्रा की और अपने 'अर्धकथानक' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में यहाँ मंदिर, नशिया और स्तूप होने का आँखों देखा विवरण दिया है, किन्तु आज ये प्राचीन अवशेष नष्ट हो चुके हैं। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा सन् १९५० से १९५२ के दौरान हस्तिनापुर के एक भाग का उत्खनन किया गया तो श्री बी. बी. लाल के अनुसार इसके पाँच विभिन्न काल खंडों के इतिहास का पता चला। इसका प्रारंभिक इतिहास ईसवी पूर्व १२वीं शती से बहुत पहले अस्तित्व में आ गया था। उसके बाद हस्तिनापुर नगर चार बार उजड़ा और उतनी ही बार उसका पुनर्निर्माण हुआ। आठवीं नौंवीं शताब्दी ईसवी पूर्व में गंगा की बाढ़ से नष्ट होने वाली हस्तिनापुर सभ्यता लाल के अनुसार 'चित्रित धूसर मृद्भांड' (पी. जी. डब्ल्यू.) परम्परा से सम्बद्ध थी, जिसका समय ११०० ई.पू. से ८०० ई.पू. के मध्य निर्धारित किया गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह कुरुवंशी इतिहास का साम्राज्य काल था । लगभग २०० वर्षों के अंतराल के बाद हस्तिनापुर पुनः बसा. तो यहाँ पी. जी. डब्ल्यू. के स्थान पर 'उत्तरापथ के काले भांडो' (एन.बी.पी.) का प्रचलन हो गया था। हस्तिनापुर तृतीय का यह काल खंड For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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