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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ
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६०० ई.पू. से ३०० ई.पू. के बीच माना जाता है। जैन परम्परा के अनुसार इस समयावधि में कुरुवंश के स्थान पर नाग जाति का हस्तिनापुर में आधिपत्य हो गया था। संभावना यह भी की जाती है कि हस्तिनापुर तृतीय के इतिहास काल में ही यहाँ २३वें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ और २४वें तीर्थंकर भगवान् महावीर का समवशरण आया था और भगवान् महावीर के उपदेशों को सुनकर यहाँ के राजा शिवराज ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। इसी अवसर पर यहाँ एक जैन स्तूप का भी निर्माण किया गया था। यह बस्ती ३०० ई.पू. में किसी भीषण अग्निदाह से नष्ट हो गई।
हस्तिनापुर चतुर्थ लगभग सौ वर्षों बाद २०० ई.पू. से ३०० ईसवी तक फिर से बसा । जैन अनुश्रुतियों के अनुसार जैन सम्राट् सम्पति ने इसे बसाया था। यह राजा अशोक का पौत्र था तथा जैन धर्म का अनुयायी भी। इसके राज्यकाल में हस्तिनापुर में अनेक जैन मंदिरों का निर्माण भी हुआ।
लगभग सात-आठ सौ वर्षों के अंतराल के बाद हस्तिनापुर पंचम की बस्ती फिर से बसनी प्रारंभ हुई तथा पंद्रहवीं शताब्दी ईसवी तक यहाँ 'ग्लेज्ड वेयर' मृद्भाण्ड परंपरा का विस्तृत प्रचलन हो चुका था। तत्कालीन इतिहास के संदर्भ में भारवंशी राजा हरदत्त राय के राज्यकाल में इस नगर का चौथी बार पुनर्निर्माण हुआ। श्री बी.बी. लाल को हस्तिनापुर की इस बस्ती से सुल्तान गियासुद्दीन बलबन (१२६७-८७ ई.) तथा सुल्तान महमूदशाह द्वितीय (१३९२-१४१२ ईसवी) के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। इसी काल से सम्बद्ध दो जैन मूर्तियां भी उपलब्ध हुई हैं। श्री लाल के अनुसार बलुआ पत्थर से बनी आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव की प्रतिमा (एच.एस.टी. १-७२९) ध्यानमुद्रा में अवस्थित हैं, जिसके दाएं भाग का ऊपरी कोना खंडित है तथा बाईं ओर ऊपर अशोक वृक्ष की शाखाएं उकेरी गई हैं। दूसरी जैन प्रतिमा अभय मुद्रा में अंकित जैन देव की प्रतीत होती है। इस टैराकोटा देव प्रतिमा (एच.एस.टी-१-४५२) ने गोल कण्ठाहार तथा बड़े-बड़े कर्णाभूषण धारण किए हुए हैं।
हस्तिनापुर से जैन परंपरा का जितना प्राचीन संबंध है, उस दृष्टि से प्राचीन पुरातात्त्विक अवशेषों का न मिलना आश्चर्यपूर्ण लगता है, किन्तु इस संबंध में यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण हैं कि गंगा की बाढ़, अग्निकांड आदि प्राकृतिक प्रकोपों से अनेक जैन अवशेष नष्ट हो गए होंगे और दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि अभी तक हस्तिनापुर के अनेक प्राचीन टीलों का उत्खनन नहीं हुआ है, संभवतः इन टीलों के गर्भ में जैन ऐतिहासिक अवशेष भी दबे पड़े हों।
दरअसल, हस्तिनापुर गंगा घाटी के इतिहास को आलोकित करने वाला एक अति प्राचीन नगर है। स्वतंत्रता पूर्व के पुरातात्त्विक सर्वेक्षण और उत्खनन सिंधु घाटी की सभ्यता का ही महामंडन करते रहे। हस्तिनापुर आदि गंगाघाटियों के पुरातत्त्व की घोर उपेक्षा की गई। जनरल कनिंघम ने पहली बार जब हस्तिनापुर का सर्वेक्षण किया तो उनके लिए इस स्थान का कोई विशेष महत्त्व नहीं था, किन्तु उसके ७५ वर्ष बाद पुरातत्त्वविद् श्री अमृत पांड्या ने सन् १९४८ ईसवी में हस्तिनापुर का भ्रमण किया तो उन्होंने अपनी रिपोर्ट में साफ लिखा है कि “यहाँ इस समय स्थायी बस्ती नहीं है। दो बड़ी जैन धर्मशालाएं और मंदिर हैं। ये मंदिर न होते तो आज हस्तिनापुर को हम न पाते । जैन यात्रीगण यहाँ आते जाते हैं।" हस्तिनापुर के ध्वंशावशेष की दुर्दशा का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि "हस्तिनापुर के ध्वंशावशेष यहाँ से लगभग बाईस मील दूर गढ़मुक्तेश्वर तक बूढ़ी गंगा के किनारे-किनारे फैले हुए हैं। टीलों के शिखरों के आस-पास के ढाल वर्षा के जल से कट रहे हैं और इससे यहाँ सतह के नीचे की प्राचीन वस्तुएं यत्र-तत्र पड़ी दिखाई देती हैं। वर्षा के पश्चात् शीघ्र ही चरवाहे यहाँ से प्राचीन वस्तुएँ उठा ले जाते हैं।"
सन् १९५५ में प्रकाशित हस्तिनापुर उत्खनन संबंधी रिपोर्ट में श्री लाल ने दो जैन मंदिरों तथा तीर्थंकर श्री शांतिनाथ, श्री कुंथुनाथ और श्री अरनाथ की तीन नशियों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। मवाना लतीफपुर रोड के उस पार स्थित दो जैन मंदिरों में से एक जैन मंदिर दिगम्बर सम्प्रदाय का है, जो ऊँचे टीले पर बनाया गया है। १८वीं शताब्दी में इस मंदिर का निर्माण हुआ था। लाल को इस मंदिर के उत्तर-पश्चिम की ओर स्थित बाह्य परिसर से प्राचीन बर्तनों के अवशेष भी प्राप्त हुए थे। श्वेताम्बर मंदिर निचली जमीन की सतह पर बना है। इसका निर्माण काल सन् १८७० ई. बताया जाता है। दिगम्बर जैन मंदिर की विशाल वेदी में मूलनायक भगवान शांतिनाथ की प्रतिमा स्थापित है। यह श्वेत पाषाण की लगभग एक हाथ ऊँची पद्मासन प्रतिमा है। इसके बाईं ओर अरनाथ और दाईं ओर कुंथुनाथ की मूर्ति है। वेदी में पंच बाल यति का प्रतिमा फलक बहुत प्राचीन माना जाता है, किन्तु इसके दाएं ओर की दो प्रतिमाएं गायब हैं। यह प्रतिमाफलक मुजफ्फरनगर के जंगल से मिला था और वहीं से यहाँ लाया गया है। मूर्तिकला की दृष्टि से इसका काल १०-११वीं शताब्दी आंका जाता है। इसके अलावा इस मंदिर में नीले और हरे पाषाण की दो पद्मासन मूर्तियां तथा पीतल की अनेक जैन मूर्तियां भी दर्शनीय हैं।
इस मंदिर के पीछे एक दूसरा मंदिर भी बना है, जो बाद में बनाया गया था। इसमें भगवान् शांतिनाथ की ५ फुट ११ इंच परिमाण वाली खड्गासन प्रतिमा स्थापित है। हस्तिनापुर के एक टीले की खुदाई से यह मूर्ति प्राप्त हुई थी। इसके मूर्ति लेख के अनुसार सन् ११७४ ईसवी में देवपाल सोनी नामक किसी अजमेर निवासी ने इस भगवान् शांतिनाथ की प्रतिमा को हस्तिनापुर में प्रतिष्ठित करवाया था।
पुरातत्त्व संबंधी खोजों तथा वर्तमान में विद्यमान जैन प्रतिमाओं के स्थापत्य और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर इतना तो स्पष्ट है कि हस्तिनापुर इतिहास का मध्यकालीन चरण जैन धर्म की गतिविधियों से अपना विशेष महत्त्व बनाए हुए था। चौदहवीं शताब्दी ई. में तथा उससे भी बहुत पहले और बाद तक अनेक जैन धर्माचार्य, तीर्थयात्रीगण और अन्य श्रद्धालु जन हस्तिनापुर की तीर्थ यात्रा पर प्रायः आते थे। अयोध्या के बाद दूसरे स्थान पर इसी तीर्थस्थान का महत्त्व था।
पिछली दो दशाब्दियों में जैन तीर्थ क्षेत्र के रूप में हस्तिनापुर का तेजी से विकास हुआ है। गणिनी आर्यिका ज्ञानमती जी की सद्प्रेरणा से जैन
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