Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 734
________________ ६६६ ] दूसरी बात यह है कि पृथ्वी स्वयं भारी है। अधःपतन स्वभाव वाले बहुत से जल, बालू, रेत आदि पदार्थ हैं जिनके ऊपर रहने से नारंगी के समान गोल पृथ्वी हमेशा घूमती रहे और यह सब ऊपर ठहरे रहें, पर्वत, समुद्र, शहर, महल आदि जहाँ के तहाँ बने रहें यह बात असंभव है। यहाँ पुनः कोई भूभ्रमणवादी कहते हैं कि घूमती हुई इस गोल पृथ्वी पर समुद्र आदि के जल को रोके रहने वाली एक वायु है जिसके निमित्त से समुद्र आदि ये सब जहाँ के तहाँ ही स्थिर बने रहते हैं। इस पर जैनाचार्यों का उत्तर है कि जो प्रेरक वायु इस पृथ्वी को सर्वदा घुमा रही है, वह वायु इन समुद्र आदि को रोकने वाली वायु का घात नहीं कर देगी क्या? वह बलवान् प्रेरक वायु तो इस धारक वायु को घुमाकर कहीं की कहीं फेंक देगी। सर्वत्र ही देखा जाता है कि यदि आकाश में मेघ छाये है और हवा जोरों से चलती है तब उस मेघ को धारण करने वाली वायु को विध्वंस करके मेघ को तितर-बितर कर देती है, ये बेचारे मेघ नष्ट हो जाते हैं, या देशांतर में प्रयाण कर जाते हैं। उसी प्रकार अपने बलवान वेग से हमेशा भूगोल को सब तरफ से घुमाती हुई जो प्रेरक वायु है, वह वहाँ पर स्थिर हुए समुद्र, सरोवर आदि को धारने वाली वायु को नष्ट भ्रष्ट कर ही देगी। अतः बलवान् प्रेरक वायु भूगोल को हमेशा घुमाती रहे और जल आदि की धारक वायु वहां बनी रहे, यह नितान्त असंभव है। पुनः भूभ्रमणवादी कहते हैं कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। अतएव सभी भारी पदार्थ भूमि के अभिमुख होकर ही गिरते हैं। यदि भूगोल पर से जल गिरेगा तो भी वह पृथ्वी की ओर ही गिरकर वहां का वहां ही ठहरा रहेगा। अतः वह समुद्र आदि अपने-अपने स्थान पर ही स्थिर रहेंगे। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि आपका कथन ठीक नहीं है। भारी पदार्थों का तो नीचे की ओर गिरना ही दृष्टिगोचर हो रहा है। अर्थात् पृथ्वी में एक हाथ का लम्बा चौड़ा गड्ढा करके उस मिट्टी को गड्डे की एक ओर ढलाऊ ऊँची कर दीजिये। उस पर गेंद रख दीजिये, वह गेंद नीचे की ओर गड्ढे में लुढ़क जायेगी। जबकि ऊपर भाग में मिट्टी अधिक है तो विशेष आकर्षण शक्ति के होने से गेंद को ऊपर देश में ही चिपकी रहना चाहिये था, परन्तु ऐसा नहीं होता है। अतः कहना पड़ता है कि भले ही पृथ्वी में आकर्षण शक्ति होवे, किन्तु उस आकर्षण शक्ति को सामर्थ्य से समुद्र के उलादिकों का घूमती हुई पृथ्वी से तिरछा या दूसरी ओर गिरना नहीं रुक सकता है। 1 जैसे कि प्रत्यक्ष में नदी, नहर आदि का जल ढलाऊ पृथ्वी की ओर ही यत्र-तत्र किधर भी बहता हुआ देखा जाता है और लोहे के गोलक, फल आदि पदार्थ स्वस्थान से च्युत होने पर गिरने पर नीचे की ओर गिरते हैं। इस प्रकार जो लोग आर्यभट्ट या इटली, यूरोप अदि देशों के वासी विद्वानों की पुस्तकों के अनुसार पृथ्वी का भ्रमण स्वीकार करते हैं और उदाहरण देते हैं कि जैसे अपरिचित स्थान में नौका में बैठा हुआ कोई व्यक्ति नदी पार कर रहा है। उसे नौका तो स्थिर लग रही है और तीरवर्ती वृक्ष मकान आदि चलते हुए दिख रहे हैं। परन्तु यह भ्रम मात्र है, तद्वत् पृथ्वी की स्थिरता की कल्पना भी भ्रममात्र है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि साधारण मनुष्य को भी थोड़ा सा ही घूम लेने पर आंखों में घूमनी आने लगती हैं, कभी-कभी खंड देश में अत्यल्प भूकम्प आने पर भी शरीर में कँपकँपी, मस्तक में भ्रांति होने लग जाती है तो यदि रेल गाड़ी के वेग से भी अधिक वेगरूप पृथ्वी की चाल मानी जायेगी, तो ऐसी दशा में मस्तक शरीर, पुराने गृह, कूपजल आदि की क्या व्यवस्था होगी? बुद्धिमान् स्वयं इस बात पर विचार कर सकते हैं। तात्पर्य यह निकला जैनागम के अनुसार पृथ्वी स्थिर है और सूर्यचन्द्र आदि भ्रमणशील है। इस प्रकार संक्षेप से यह जंबूद्वीप का वर्णन किया गया है। हस्तिनापुर में आगम आधार से जो जम्बूद्वीप रचना का निर्माण किया गया है उसमें उक्त प्रकरण में से कतिपय रचना दर्शाई गई है। यहाँ ७८ अकृत्रिम चैत्यालय और २०१ देवभवन बने हैं जो अकृत्रिम चैत्यालयों का दिग्दर्शन करा रहे हैं। इस जम्बूद्वीप का दर्शन कर आप सभी अपने मानवजन्म को सफल करें तथा आगमोक्त जम्बूद्वीप का ज्ञान प्राप्त करें यही मंगल भावना है। क्षेत्र और पर्वत क्षेत्र भरत पर्वत हिमवान क्षेत्र हैमवत Jain Educationa International वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला विस्तार दक्षिण-उत्तर 526 योजन 19 105214129 21059 लम्बाई ऊँचाई भोगभूमि या कर्मभूमि वर्ण पर्वत पूर्व-पश्चिम पर्वत की क्षेत्रों में के 14471 24931 37674 5 19 18 19 16 19 100 कर्मभूमि भोगभूमि अशाश्वत भोगभूमि जघन्य सुवर्णमय For Personal and Private Use Only कूट संख्या कूटों की पर्वतों पर ऊँचाई 11. 25 योजन चौड़ाई मूल में अंत में 25 12, 1/2 www.jainelibrary.org

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