________________
गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
[४३९
नन्दीश्वर द्वीप का सुचारू वर्णन देते हुए अंजनगिरि, बावड़ी आदि की सुन्दर रचनाओं का विवरण है। यहाँ तक ज्योतिषी देव, सूर्य, चन्द्र संख्या, परिवार, गलियाँ तारा आदि का संख्या सहित पूर्ण विवरण दिया गया है।
इसके बाद ऊर्ध्वलोक परिच्छेद में वैमानिक शीर्षक से कल्प के १२ भेद कल्पातीत देवों के भेद, नव अनुदिश, पाँच अनुत्तर, विमान संख्या, इंद्रक प्रस्तार , विमानों के नाम, संख्या, इंद्रों के चिह्न, उनके नगरों आदि का विवरण है। देवों के विशद विवरण में उनकी आयु, जन्म सुख, आहार, उच्छ्वास, प्रवीचार, लेश्या, अवधिज्ञान, विक्रियाशक्ति, परिवार, इंद्र की महादेवियां, वल्लभिका, सम्यक्त्व के कारण, गमन, शक्ति आदि का वर्णन दिया गया है। तत्पश्चात्, ऊर्ध्वलोक के चैत्यालय, सिद्ध शिला, सिद्धलोकादि के विवरण से ग्रंथ समाप्त होता है। अंत में अनेक सारणियों एवं चार्टी द्वारा संक्षेप में विविध वर्णन है।
___इस प्रकार जिनागम प्रणीत तिलोयपण्णति, त्रिलोकसार, लोकविभाग जम्बूद्वीप पण्णति संगहों आदि करणानुयोग विषयक ग्रंथ एवं सामग्री को सुचारू एवं अत्यंत सुस्पष्ट रूप से रचितकर यह सर्व गुणसम्पन्न कृति बनाई गयी है। इसे समस्त विषय विषयक संख्याएं विविध प्रकार के प्रमाणों का विभिन्न इकाइयों में निरूपण करती हैं। सभी वर्णन प्रामाणिक रूप में उपलब्ध हैं। सामान्य गृहस्थों के अध्ययन के लिए यह नितान्त आवश्यक तो है ही, साथ ही विद्वद्वर्ग द्वारा भी इससे लाभ लिया जा सकता है। विधानादि के लिए नक्शे सर्वांगपूर्ण सुन्दर एवं स्पष्ट बनाये गये हैं। चार्ट, चित्र, सारणी, भौगोलिक, ज्योतिष्क एवं लोक सम्बन्धी विभिन्न नक्शों तथा संख्याओं द्वारा इस ग्रंथ की उपयोगिता अतुलनीय हो गयी है। इसी प्रकार करणानुयोग विषयक शेष सभी जिनागम की सारभूत सामग्री संक्षिप्त एवं संख्यासहित वर्णन को प्राप्त हुई है जो सुरुचिकर हो गयी है। इस प्रकार पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी ने इस ग्रंथ की रचनाकर करणानुयोग के सागर को गागर में भर दिया है। विश्व के इतिहास में वे ही प्रथम महिला हैं जिन्होंने करणानुयोग जैसे अमूर्त विषय को न केवल इस ग्रंथ द्वारा वरन्, साक्षात् जम्बूद्वीप की अप्रतिम रचना हस्तिनापुर में कराने की प्रेरणा देकर जैन गणित के लोकोत्तर दृश्य को स्वप्र से जाग्रत अवस्था में ला दिया है। गणित की रुक्षता में जो स्निग्धता आज आई दिखाई दे रही है और दूसरों के द्वारा अनुकरणीय बनती जा रही है वह पूज्य माताजी का ही अगम्य भूमि पर अद्वितीय प्रयास रूप बना है। गणित की निष्पक्षता, दुरूहता, सर्वतोभद्रमयी उपयोगिता को उनकी अभिरुचि ने कृतकृत्य कर दिया है। उनका यह प्रयास सर्वोत्तम, सर्वग्राह्य एवं सर्वप्रिय है, साथ ही वह अभूतपूर्व अमर एवं आधारभूत है।
हम उनकी इस कृति की प्रशंसा को शब्दातीत पा रहे हैं। उन्होंने ऐसे ही अन्य विलक्षण कृतियों की भी रचनाकर समाज एवं विद्वद्वर्ग को चिर कृतज्ञ बना दिया है।
विदेह क्षेत्र के अंतर्गत उत्तर कुरु क्षेत्र में जम्बूवृक्ष एवं देव कुरु क्षेत्र में शाल्मलि वृक्ष हैं। जो कि विभिन्न रत्नों द्वारा निर्मित हैं। वायु के झोंकों द्वारा इनमें से सुगंधित वायु निकलती रहती है। हमारा वर्तमान विश्व भरत क्षेत्र के आर्य खण्ड में ही स्थित है। इस प्रकार भरत क्षेत्र का आर्य खण्ड ही हमें दृष्टिगोचर होता है, किन्तु ५ म्लेच्छ खण्डों के बारे में हमारी जानकारी कुछ भी नहीं है। उसी प्रकार जम्बूद्वीप के अन्य क्षेत्र भी हमें इस विश्व में नहीं दिखते हैं। अतएव अधिकांश व्यक्ति इस जानकारी पर संदेह करने लगते हैं। समाज के विद्वतजनों से अपेक्षा है कि इस विषय पर शोध करें और जैन भूगोल को एक सुदृढ़ आधार प्रदान करें।
हस्तिनापुर गाइड के दूसरे भाग में प्राचीन हस्तिनापुर का वर्णन है। हस्तिनापुर के इतिहास पुरुषों में राजा सोमप्रभ के लघु भ्राता श्रेयांस कुमार का वर्णन है। इन्होंने प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ को इक्षुरस का आहार हस्तिनापुर में ही दिया था। चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार, १६, १७ एवं १८वें तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ एवं अरहनाथ के प्रथम चार कल्याणक हस्तिनापुर में ही हुए हैं। ये तीनों तीर्थंकर क्रमशः ५, ६ एवं ७वें चक्रवर्ती एवं कामदेव भी थे। आठवें एवं नवें चक्रवर्ती सुभौम एवं महापद्म की जन्मस्थली का श्रेय भी इसी हस्तिनापुर नगरी को है। २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ के समय क्षत्रिय राजा पांडव एवं कौरवों की राजधानी भी हस्तिनापुर ही थी और महाभारत युद्ध करने का अंतिम निर्णय इसी धरा पर हुआ था।
वर्तमान हस्तिनापुर में प्रमुख जैन मंदिर में मूलनायक प्रतिमा भगवान् शांतिनाथ की है जो कि एक टीले की खुदाई से प्राप्त हुई थी। अब इस टीले पर श्वेतांबर समाज ने मंदिर एवं धर्मशाला का निर्माण किया है। इससे कुछ ही दूरी पर आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से त्रिलोक शोध संस्थान ने ८४ फीट ऊँचे सुमेरु पर्वत का निर्माण किया है। जिसमें भद्रसाल, नंदन, सौमनस एवं पांडुक वन दर्शाये गये हैं। पांडुक वन के चारों दिशाओं में चार अर्धचंद्राकार शिलाएँ स्थापित की गई हैं। ऊपर तक पहुँचने का रास्ता अंदर से सीढ़ियों द्वारा तय किया जाता है। यह सुमेरु पर्वत जम्बूद्वीप के केन्द्र पर विदेह क्षेत्र में स्थित है। जम्बूद्वीप के सभी खंड, पर्वत एवं प्रमुख नदियों को दर्शाया गया है। इसके चारों ओर लवण समुद्र भी बनाया गया है। विदेह
क्षेत्र में जम्बूवृक्ष एवं शाल्मलि वृक्षों का भी निर्माण किया गया है। यह वास्तव में एक अनूठी, अनुपम एवं अद्वितीय रचना है । सन् १९८५ में यह बनकर पूर्ण हो गया था। इस रचना से जम्बूद्वीप की रचना आसानी से समझी जा सकती है।
Jain Educationa international
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org