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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
बाहुबली की कठिन योग साधना का सरल व सुगम बोधगम्य भाषा द्वारा प्रतिपादन करना अनवरत ज्ञान साधना का परिणाम है। शब्द चयन सरल, परन्तु वाक्य विन्यास का उपयोग बहुत सुन्दर ढंग से किया गया है। यथा- "महाराजा नाभिराज पुत्र का 'बाहुबली' नामकरण कर देते हैं सो ऐसा मालूम पड़ता है कि ये अपनी भुजाओं से चक्रवर्ती को उठा लेंगे।" "तुम दोनों अपने शील और गुण के कारण इस किशोरावस्था में भी वृद्धा के समान हो।" "जो पूर्व-पश्चिम समुद्र में कहीं नहीं रुका, विजया की गुफाओं में नहीं रुका, वह "चक्ररत्न' आज मेरे घर आंगन में ही क्यों रुक रहा है।" आदि आगे आने वाली घटनाओं का पूर्वाभास करा देते हैं।
साधना की दृष्टि द्वारा साधना का जो मूल्यांकन किया है वह एक सफल साधक का ही प्रयत्न हो सकता है। इस प्रकार की लेखनकला संस्कृति को जीवित रखती है नष्ट नहीं होने देती। पुस्तक में इसका विशेष ध्यान रखा गया है।
अंत में बाहुबली की ५७ फीट ऊंची श्रवणबेलगोल मूर्ति का विवरण उनके जीवन की विशाल ऊँचाइयों का तदाकार स्वरूप दिग्दर्शन करा रहा है।
हाँ, एक बात अवश्य लिखना आवश्यक है। "भगवान बाहुबली को शल्य नहीं थी" विषय के द्वारा जिस भ्रांति को दूर करने का प्रयत्न किया है वह विशेष द्रष्टव्य है। पुस्तक का विषय पठनीय एवं आचरण करने योग्य है। समस्त जानकारियों का समावेश करने का प्रयत्न किया गया है। पुस्तक के शब्दों के साथ ही विराम लेता हूँ
"इस युग के चरमशरीरियों में सर्वप्रथम मोक्ष जाने, वाले ऐसे बाहुबली भगवान हमें भी सुगति प्रदान करें।"
दशधर्म
समीक्षक - डॉ. भागचन्द्र जैन भास्कर, नागपुर
मानवीय अन्तः स्वर का संगीत
तात्तमाकिन्य
मार्दव
आरिडा.
धर्म अन्तश्चेतना का मानवीय स्वर है जो संकल्प, श्रम और पवित्रता के संगीत से गुंजित होता है, अहं त्याग से उपलब्ध होता है, स्वत्व के प्रकाशित हो जाने पर अभिव्यक्त होता है और विसर्जन से फलित होता है। उसका सम्बन्ध जन्म से नहीं। कर्म से है, शिक्षा से नहीं, अनुभूति से है, क्रियाकाण्ड से नहीं, सद्भावों से है। वह विवेक और विचार को जन्म देता है, भेद विज्ञान होने की शक्ति पैदा करता है, सरलता को नया प्राण देता है और आत्मज्ञान को विविध आयामों में पहुंचा देता है।
दशधर्म पुस्तक ऐसे ही आयामों को खोलती है जिनमें क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, तात्मा समल
त्याग, अकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दस मानवीय धर्मों पर साधार चिन्तन किया गया है। इसकी लेखिका उत्ता संया
आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी स्वयं विदुषी और तपस्विनी हैं, धर्म मार्ग पर पदारूढ़ हैं, स्वानुभूति- संपन्न हैं, इसलिए इन धर्मों के विवेचन में उनका आन्तरिक पवित्र स्वर मुखरित हो उठा है।
जैन सम्प्रदाय में पर्युषण पर्व भाद्रपद शुक्ला पंचमी से एक आध्यात्मिक पर्व के रूप में बड़ी धूमधामपूर्वक समाजाती
मनाया जाता है। यह दिन परम्परानुसार उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के आरम्भ का दिन है, सृष्टि का आदि दिन
है। इसलिए उसका आध्यात्मिक साधना में विशेष महत्त्व माना जाता है। सभी लोग दसों दिन अपना कारोबार सीमित कर आत्मचिन्तन में जुट जाते हैं। इन दिनों मन्दिरों में इन्हीं दस धर्मों पर सांगोपांग विवेचन किया जाता है और यह आशा की जाती है कि हर व्यक्ति इन धर्मों की आराधना करे और विराधना से बचकर जीवन के मर्म को समझे।
प्रस्तुत पुस्तक की पृष्ठभूमि में माताजी का उद्देश्य यह रहा है कि प्रवचन करने वाले विद्वानों को दस धर्मों पर विवेचनात्मक सामग्री उपलब्ध करायी जाये ताकि जगह-जगह जाकर वे जनता को अधिक से अधिक लाभान्वित करा सकें । सन् १९८३ में इसी उद्देश्य से उन्होंने हस्तिनापुर में एक प्रशिक्षण शिविर भी लगाया था जिसमें तरुण विद्वानों को सुशिक्षित किया गया था और इस पुस्तक के माध्यम से उन्हें सामग्री उपलब्ध कराई गई थी। यद्यपि यह सामग्री अपर्याप्त है पर उसकी उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न खड़ा नहीं किया जा सकता है।
___महाकवि रइचू ने बड़ी गंभीरता पूर्वक इन दस धर्मों का विवेचन किया है। माताजी ने उनकी सामग्री को आधार बनाकर उसे स्वयंकृत संस्कृत श्लोकों, जैन पौराणिक आख्यानों तथा आगमिक उदाहरणों द्वारा परिपुष्ट किया है। इसलिए उसकी उपयोगिता और अधिक बढ़ गई है। इन धर्मों के लक्षणों को सर्वार्थसिद्ध, ज्ञानार्णव और आत्मानुशासन से तथा पौराणिक उदाहरणों पद्मपुराण, हरिवंशपुराण और उत्तरपुराण से अधिक लिये गये हैं।
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