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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
इतिहास का प्राचीन पृष्ठ होते हुए भी यह क्षेत्र वर्तमान के जनसंपर्क से दूर रहा। इसका कारण है जैन समाज द्वारा इसे विशेष प्रकाश में नहीं लाया जाना । आज से १० वर्ष पूर्व हस्तिनापुर आस-पास के मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बड़ौत आदि क्षेत्रों के अतिरिक्त लोगों के लिए मात्र शास्त्रगत विषय था। केवल पुराणों में इसका नाम पढ़ने-सुनने को मिलता था।
होनहार की बात होती है, कोड़ाकोड़ी वर्षों पूर्व जिस सुदर्शन मेरु पर्वत को हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने अपने स्वप्न में देखा था उसे साकार करने का श्रेय पू. आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को मिला।
जंबूद्वीप की प्रारंभिक उपज कहां से? ईसवी सन् १९६५ में आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने संघ सहित कर्नाटक के श्रवणबेलगोला तीर्थक्षेत्र पर भ० बाहुबली के चरण सानिध्य में चातुर्मास स्थापना की। उस समय माताजी के संघ में आ० पद्मावतीजी, आ० जिनमती माताजी, आर्यिका आदिमतीजी, क्षु० श्रेयांसमती एवं क्षु० अभयमतीजी थीं। आ० आदिमतीजी व क्षु० अभयमतीजी की अस्वस्थता के कारण माताजी को वहाँ पूरे एक वर्ष रुकना पड़ा। जिसके मध्य कई बार विंध्यगिरि पर्वत पर भ० बाहुबली के चरण सामीप्य में माताजी को ध्यान करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ध्यान की धारा निरन्तर बढ़ती गई। एक बार १५ दिन तक मौनपूर्वक लगातार पहाड़ पर रहकर ध्यान किया। मात्र आहार के समय नीचे उतरना, आहार के अनंतर पुनः ऊपर जाकर रात्रि वहीं व्यतीत करती थीं। आर्यिका पद्मावतीजी हमेशा माताजी के साथ ही रहती थीं। इसी मध्य एक दिन माताजी ने भ० बाहुबली का ध्यान करते-करते उसी ध्यान की धारा में तेरहद्वीप के चार सौ अट्ठावन जिनचैत्यालयों की वंदना, वहां की अकृत्रिम छटा, वन खण्ड, स्वयंसिद्ध प्रतिमाएं सब कुछ यथावत् मस्तिष्क में दृष्टिगत होने लगा। विशेष आनन्दानुभव के साथ ध्यान सन्तति समाप्त हुई। माताजी के हर्ष का पारावार नहीं था;
जब प्रातःकाल आहार के समय पहाड़ से नीचे आई तो करणानुयोग के त्रिलोकसार ग्रंथ को उठाकर उसमें ज्यों की त्यों रचना का वर्णन पढ़कर अत्यधिक प्रसन्न हुई। १५ दिन बाद मौन की अवधि समाप्त होने पर उन्होंने अपनी शिष्या आर्यिकाओं को एवं कुछ श्रावकों को भी सारी घटना बताई। माताजी की शिष्या आर्यिका जिनमतीजी ने कहा कि यह रचना पृथ्वी पर अवश्य साकार होनी चाहिए। माताजी अपने प्रवचनों में भी जब अकृत्रिम चैत्यालयों का वैभव, उनकी प्राकृतिक छटा का वर्णन करतीं, उस समय सभी श्रोता मानो एक क्षण को वहीं पहुँचकर स्वयंसिद्ध प्रतिमाओं के ध्यान में लीन हो जाते। जैसी कि यह सूक्ति प्रसिद्ध ही है कि "वक्त्रं वक्ति हि मानसम्" ठीक इसी प्रकार माताजी के अन्तःकरण से निकले हुए शब्द श्रोताओं को प्रभावित किये बिना नहीं रहते। आज भी उनकी यही अंतरंग भावना रहती है कि "कब उन अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना साक्षात् करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त होगा।"
भगवान उनकी इस भावना को अवश्य पूर्ण करेगा। कुछ दिनों बाद श्रवणबेलगोला से विहार करके आर्यिका संघ सोलापुर (महाराष्ट्र) आया। यहाँ पर एक श्राविकाश्रम है, जिसकी संस्थापिका पद्मश्री पं. सुमतिबाई शहा कर्मठ महिला हैं, साथ में बाल ब्र. कु. विद्युल्लता शहा भी माताजी की अनन्य भक्तों में से हैं। इनकी माँ आ० चन्द्रमती जी माताजी के साथ ही आचार्य वीरसागर के संघ में रहती थीं और ज्ञानमती माताजी से कुछ न कुछ अध्ययन भी करती थीं। यही कारण था कि उनकी माताजी के प्रति विशेष भक्ति थी। अतः इन लोगों के आग्रह से माताजी ने सोलापुर के महिलाश्रम में ही चातुर्मास स्थापन किया। उसी समय आ० श्री विमलसागरजी महाराज का संघ सहित चातुर्मास सोलापुर शहर में ही हुआ। दोनों संघों का संगम वहाँ की धर्म-प्रभावना में विशेष सहकारी बना। ज्ञानमती माताजी के सानिध्य में शिक्षण शिविर का आयोजन हुआ, जिसमें प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों ने सक्रिय रूप से भाग लेकर ज्ञानार्जन किया। माताजी प्रतिदिन विभिन्न विषयों के साथ-साथ जैन भूगोल पर अच्छा प्रकाश डालतीं, जिससे ब्र. सुमतिबाई के हृदय में भी इस रचना को पृथ्वी पर बनाने की लालसा जाग्रत हुई। उन्होंने सोलापुर में इस रचना हेतु कई स्थल चयन किए और माताजी से कुछ दिन यहीं रहकर मार्गदर्शन देने के लिए निवेदन किया। उन्होंने बहुत आग्रह किया कि माताजी हम आपकी चर्या में किसी प्रकार का दोष नहीं लगने देंगे। हमें मात्र आपके द्वारा दिशा-निर्देश चाहिए; क्योंकि यह रचना आज तक कहीं भी बनी नहीं है। किसी इंजीनियर या आचींटेक्ट के गम्य भी यह विषय नहीं है। नंदीश्वर द्वीप की रचना, समवशरण की रचना तो कई जगह निर्मित हो चुकी है; अतः उसकी नकल करने में हमें कोई परेशानी नहीं होगी, किन्तु यह रचना मात्र आपके मस्तिष्क में है, आप ही इसका सही मार्ग-दर्शन दे सकती हैं। किंतु माताजी के वहाँ नहीं रुकने के कारण वहाँ का कार्य संभव न
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