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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
१. जम्बूद्वीप रथ, २. जम्बूद्वीप ज्ञान रथ, ३. ज्ञानचक्र, ४. जम्बूद्वीप चक्र, ५. जम्बूद्वीप शन चक्र
इत्यादि कई नाम प्रेषित हुए, किन्तु कोई नाम निश्चित नहीं हो सका। अंत में एक नाम आया - जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति । जो सर्वसम्मतिपूर्वक पास किया गया। उसमें यह निर्णय लिया गया कि जम्बूद्वीप का मॉडल बनाकर बिजली, फौव्वारों से सुसज्जित करके एक वाहन पर समायोजित किया जाए ज्ञान के प्रतीक में विस्तृत साहित्य का प्रचार किया जाए एवं ज्योति शब्द को द्योतित करने के लिए एक विद्युतज्योति प्रज्वलित की जाए। यह तो रहा जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के रथ के समायोजन का शुभसंकल्प अब इस महती योजना को सफलतापूर्वक संचालन करने के लिए उपस्थित समस्त विद्वानों ने सहयोग प्रदान करने हेतु अपने-अपने अभिप्राय व्यक्त किए - सर्वप्रथम पं० बाबूलालजी जमादार, पं० कुंजीलालजी, श्री नरेन्द्र प्रकाश जी प्राचार्य फिरोजाबाद, डॉ० श्रेयांस कुमार बड़ौत, डॉ० सुशील कुमार मैनपुरी, श्री शिवचरण जी मैनपुरी आदि अनेक विद्वानों ने अपना पूर्ण सहयोग देने को कहा। सफलतापूर्वक मीटिंग की कार्यवाही चली, जिसमें कतिपय श्रीमन्तों की ओर से यह एक सुझाव भी आया कि यह सब कुछ करने का प्रयोजन तो एक ही है-जम्बूद्वीप का निर्माण कराना। अतः इन सब झंझटों और ऊहापोहों से तो अच्छा है कि हम ५० श्रेष्ठियों से एक-एक लाख रुपया लेकर ५० लाख रुपया एकत्र करके जम्बूद्वीप को बना देंगे। ज्ञानज्योति के भ्रमण में तो पैसा और शक्ति दोनों लगेगा, जो बड़ा कठिन कार्य है। पूज्य माताजी ने उनके इस प्रस्ताव को सुना, किन्तु माताजी के गले यह बात नहीं उतरी। उन्होंने उपस्थित जनसमुदाय को सम्बोधित करते हुए कहा-हमें मात्र जम्बूद्वीप नहीं बनाना है, प्रत्युत सारे देश में जैन भूगोल, अहिंसा, धर्म और चरित्र निर्माण की योजना का प्रचार करना है। जैन समाज में पैसे की कमी नहीं है, किन्तु जन-जन का आर्थिक एवं मानसिक सहयोग पाकर यह रचना संपूर्ण विश्व की बने, मेरी यह भावना है माताजी के पास में मोतीचंद और रवीन्द्र कुमार ये दो प्रमुख स्तम्भ ऐसे रहे जिनके सबल कंधों पर जम्बूद्वीप निर्माण जैसे महान कार्य को प्रारंभ किया था और उन्हीं के ऊपर ज्योति प्रवर्तन के कार्य का बीड़ा उठाया। कमेटी तो कार्य प्रारंभ होने पर सहयोग देती ही रही है और देगी ही । इन्हीं दृढ़ संकल्पों के आधार पर माताजी ने निर्णय लिया कि ज्योति का प्रवर्तन अवश्य होगा। कुल मिलाकर जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन की बात तय हुई। अब प्रश्न यह उठा कि इसका उद्घाटन कहां से और किसके द्वारा कराया जावे ?
ज्योति प्रवर्तन राजधानी से
त्रिलोक शोध संस्थान के कार्यकर्ताओं ने पू० माताजी के समक्ष निवेदन किया कि आपकी भावनानुसार इस ज्योतिरथ का प्रवर्तन देहली से राजनेता के द्वारा कराया जाए तो इसका राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान भी होगा और व्यापक रूप में अहिंसा, धर्म का प्रचार भी होगा। इसकी प्रारंभिक रूपरेखा एवं प्रवर्तन उद्घाटन जैसा महान् कार्य आपके आशीर्वाद के बिना संभव नहीं है अतः आप दिल्ली बिहार का विचार बनाइए। यद्यपि पू० माताजी की इच्छा दिल्ली के लिए बिहार करने की बिल्कुल भी नहीं थी, किन्तु लोगों के अति आग्रह से चातुर्मास के पश्चात् दिल्ली के विहार का प्रोग्राम बनने लगा । संघस्थ आर्यिका श्री रत्नमती माताजी की बिल्कुल इच्छा नहीं थी दिल्ली जाने की; क्योंकि दिल्ली का वातावरण उनके स्वास्थ्यानुकूल नहीं पड़ता था, लेकिन इस महान् कार्य की रूपरेखा सुनकर वे भी मना न कर पाईं और आर्यिका संघ का मंगल विहार फाल्गुन वदी ३ सन् १९८२ मार्च में हो गया। १५ दिन में माताजी दिल्ली पहुँच गई।
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ऐतिहासिक प्रवर्तन का पूर्व संचालन मोरीगेट से -
दिल्ली मोरीगेट के जैन समाज के विशेष आग्रह पर संघ वहीं पर जैन धर्मशाला में ठहरा। अब तो सबका यही लक्ष्य था कि जम्बूद्वीप का सुन्दर मॉडल शीघ्र तैयार कराया जाए और भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के कर कमलों से ज्योति का उद्घाटन कराया जाए।
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श्रेयांसि बहुविप्रानि
बड़े-बड़े कार्यों में प्रायः विन भी आया ही करते हैं। ज्ञानज्योति प्रवर्तन की व्यापय रूपरेखा सुन-सुनकर कतिपय विप्रसंतोषियों ने अपना कार्य शुरू कर दिया। कई ज्योतिषियों की भविष्यवाणी हुई कि ज्योति प्रवर्तन कदापि नहीं हो सकता है इंदिरा जी किसी कीमत पर नहीं आ सकती है। एक ज्योतिषाचार्यजी ने कहा कि प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटन का तो कोई प्रश्न ही नहीं है एवं ढाई महीने से अधिक रथ का भ्रमण हो ही नहीं सकता है— इत्यादि अनेक बातें अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार लोग कहने लगे, किन्तु ज्ञानमती माताजी के ऊपर किसी की बात का कभी असर नहीं हुआ। उन्होंने सदा संस्था के कार्यकर्ताओं को भी यही उपदेश दिया है कि "अपने कार्य में सदा लगे रहो, बुराई करने वाले का कभी प्रतिकार मत करो, संघर्षों को चुनौती समझकर पुरुषार्थ करने में पीछे मत रहो" इन्हीं सूक्तियों के अनुसार मोतीचंदजी, रवीन्द्र कुमारजी व पं० बाबूलालजी जमादार तथा अन्य पदाधिकारीगण अपने कार्य में लगे रहे।
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