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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
भरत का भारत:- भगवान आदिनाथ (ऋषभदेव) के ज्येष्ठ पुत्र भरत जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा जो कि इस युग के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट् हुए एवं अंत में दैगम्बरी दीक्षा धारण कर मोक्ष प्राप्त किया, उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं को दर्शाया गया है। प्रथम
संस्करण अक्टूबर १९९२ में । पृष्ठ संख्या २६०, मूल्य १०/- रु० । १२८. दीपावली पूजन:- कई वर्षों से जैन समाज में जैन पद्धति में दीपावली पूजन की पुस्तक की आवश्यकता प्रतीत हो रही थी, जिसकी पूर्ति
माताजी ने कर दी। प्रथम संस्करण नवम्बर १९९१ में, पृष्ठ संख्या ४०+१२, मूल्य ३/- रु०।। १२९. . प्रोसीडिंग ऑफ इण्टरनेशनल सेमिनार ऑन जैन मेथेमेटिक्स एंड पास्मोग्राफी:- सन् १९८५ में जैन गणित एवं त्रिलोक विज्ञान पर
जो अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार हुआ था उसमें पढ़े गये लेखों एवं अन्य सम्बद्ध सामग्री का संग्रह इस पुस्तक में प्रकाशित किया गया है। संपादक डॉ० अनुपम जैन हैं। सन् १९८१ एवं १९८२ में सम्पन्न जम्बूद्वीप सेमिनारों की विस्तृत रिपोर्ट भी परिशिष्ट रूप में दी गई है। प्रथम संस्करण सन्
१९९१ में । पृष्ठ संख्या २६०+१६, मूल्य २००/- रु०। १३०. चतुर्दशी व्रत कथा:- चतुर्दशीव्रत की महत्ता को प्रदर्शित करने वाली बहुत ही सुन्दर कथा पद्य में दी गई है। कथा प्राचीन है। लेखक अज्ञात
है। प्रथम संस्करण सितम्बर १९९१ में, पृष्ठ संख्या २८, मूल्य २/- रु०। १३१. जिनसहस्रनाम मंत्रः- पूज्य माताजी ने क्षुल्लिका दीक्षा लेने के दो वर्ष पश्चात् अपनी लेखनी से सर्वप्रथम भगवान् के १००८ नामों के मंत्र
बनाये। जिसका प्रकाशन सन् १९५५ में म्हसवड़ (सोलापुर) महा० से हुआ था। उसके बाद अब यह दूसरी बार उसका प्रकाशन हुआ है। इस पुस्तक में माताजी द्वारा रचित जिनसहस्रनामपूजा तथा सरस्वती पूजा भी दी गई है। सहस्रनाम मंत्र नित्य पठनीय हैं। द्वितीय संस्करण, मार्च
१९९२ में। पृष्ठ संख्या ३६+१२, मूल्य ५/- रु०। १३२. भक्ति कुसुमावली:- सन् १९६५ से १९६७ के मध्य माताजी ने जो हिन्दी-संस्कृत की स्तुतियाँ बनाई थीं उनमें से कुछ इसमें दी गई हैं। जो
कि नित्य पाठ करने लायक हैं। प्रथम संस्करण "भक्ति सुमनावली" नाम की पुस्तक के रूप में सोलापुर (महा०) से सन् १९६५ में हुआ
था। द्वितीय संस्करण मार्च १९९२ में। पृष्ठ संख्या ६०+२, मूल्य ६/- रु०। १३३. जिनस्तवन माला:- पूज्य माताजी ने अपने जीवन में अनेक संस्कृत हिन्दी स्तुतियों का सृजन किया। माताजी ने प्रारंभ से ही भक्ति मार्ग को
प्राथमिकता दी। भगवान जिनेन्द्र की भक्ति से बड़े से बड़े संकट दूर हो जाते हैं तथा सभी प्रकार से सुख, संपत्ति, संतति की प्राप्ति होती है। माताजी द्वारा रचित कुछ स्तुतियों को सन् १९६९ में जयपुर चातुर्मास में इसके प्रथम संस्करण में प्रकाशित किया था। द्वितीय संस्करण अप्रैल
१९९२ में। पृष्ठ संख्या ६०+१२, मूल्य ६/- रु० । १३४.
भक्तिसुधाः- लगभग १२ संस्कृत-हिन्दी स्तुतियों को इसमें पूज्य माताजी ने संकलित किया है। इसका प्रथम संस्करण सन् १९७९ में प्रकाशित किया गया था। पुनः कतिपय परिवर्तन-परिवर्द्धन के साथ इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण मई १९९२ में प्रकाशित हुआ है। पृष्ठ संख्या-४०,
मूल्य ३.०० रु०। १३५.
जिनस्तोत्र संग्रहः- पूज्य गणिनी आर्यिका श्री की संस्कृत काव्यप्रतिभा का परिचायक यह अभूतपूर्व ग्रन्थ है। इसमें उनके द्वारा रचित समस्त संस्कृत एवं हिन्दी स्तुतियों का समावेश है। ग्रन्थ के चतुर्थखंड में एक “कल्याणकल्पतरु" नामक संस्कृत स्तोत्र है। छन्दशास्त्र की दृष्टि से इस स्तोत्र का विद्वज्जगत् विशेष मूल्यांकन करेगा क्योंकि इस पूरे स्तोत्र में १४४ छन्दों का प्रयोग किया गया है। कुल छह खण्डों में निबद्ध यह ग्रन्थ है, जिसमें द्वितीय खण्ड से चतुर्थखण्ड तक पूज्यमाताजी द्वारा ही रचित स्तोत्र हैं तथा प्रथम, पंचम एवं छठे खण्डों में अन्य आचार्यों तथा विद्वानों
के संस्कृत-हिन्दी स्तोत्र हैं। प्रथम संस्करण जून सन् १९९२, पृ. ५३२+१६=५४८, मूल्य ६४.०० रु० ।
इस प्रकार मैंने वीरज्ञानोदयग्रन्थमाला से प्रकाशित इन एक सौ पैंतीस पुष्पों का अतिसंक्षिप्त परिचय पाठकों की जानकारी के लिए प्रस्तुत किया है। इनमें अधिकांश ग्रन्थ तो पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा ही लिखित हैं तथा लगभग १५-२० पुस्तकें अन्य लेखकों की हैं। इस ग्रंथमाला से सतत प्रकाशन आज भी चल रहा है और लगभग २० लाख की संख्या में पुस्तकें देश के समस्त प्रान्तों एवं विदेशों में भी अपनी प्रतिभा दर्श चुकी हैं। ग्रन्थमाला इसी तरह से दिन-प्रतिदिन गतिशील होती रहे यही मंगलकामना है।
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